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दशक २३
प्राचेतसस्तु भगवन्नपरो हि दक्ष-
स्त्वत्सेवनं व्यधित सर्गविवृद्धिकाम: ।
आविर्बभूविथ तदा लसदष्टबाहु-
स्तस्मै वरं ददिथ तां च वधूमसिक्नीम् ॥१॥
| प्राचेतस:-तु |
प्रचेताओं के पुत्र, निश्चय ही |
| भगवन्- |
हे भगवन! |
| अपरो हि दक्ष:- |
अन्य ही दक्ष |
| त्वत्-सेवनं व्यधित |
आपकी सेवा करने लगा |
| सर्ग-विवृद्धि-काम: |
सर्ग की वृद्धि की कामना से |
| आविर्बभूविथ तदा |
प्रकट हुए तब |
| लसत्-अष्ट-बाहु:- |
शोभायमान आठ बाहुओं से |
| तस्मै वरं ददिथ |
उसके लिये वर दिया |
| तां च वधूम्- |
और उस बधू को |
| असिक्नीम् |
असिक्नी को |
ब्रह्म पुत्र दक्ष से भिन्न, प्रचेताओं के पुत्र दक्ष ने सर्ग की वृद्धि की कामना से आपकी सेवा की और पूजन किया। तब अष्ट भुजाओं से सुशोभित आप उसके समक्ष प्रकट हुए। आपने उसको वरदान दिया और असिक्नी नाम की पत्नी भी दी।
तस्यात्मजास्त्वयुतमीश पुनस्सहस्रं
श्रीनारदस्य वचसा तव मार्गमापु: ।
नैकत्रवासमृषये स मुमोच शापं
भक्तोत्तमस्त्वृषिरनुग्रहमेव मेने ॥२॥
| तस्य-आत्मजा:- |
उसके पुत्र |
| तु-अयुतम्- |
निश्चय ही दस हजार |
| ईश |
हे भगवन! |
| पुन:-सहस्रं |
और फिर हजार |
| श्रीनारदस्य वचसा |
श्री नारद के वचन से |
| तव मार्गम्-आपु: |
आपके मार्ग को प्राप्त हुए |
| न-ऐकत्र-वासम्- |
नहीं एक स्थान पर वास हो |
| ऋषये |
ऋषि को |
| स मुमोच शापं |
उसने देदिया शाप |
| भक्त-उत्तम:-तु-ऋषि:- |
भक्त श्रेष्ठ ऋषि (नारद ने) |
| अनुग्रहम्-एव मेने |
अनुग्रह ही माना |
दक्ष के दस हजार और एक हजार, अर्थात ग्यारह हजार पुत्र हुए। श्री नारद के उपदेश से वे सब आपके मार्ग में प्रवृत्त हो गये। इस पर दक्ष ने नारद जी को एक स्थान पर टिक कर न रहने का शाप दिया। भक्त श्रेष्ठ नारद ने इसे शाप न मान कर अनुग्रह ही माना।
षष्ट्या ततो दुहितृभि: सृजत: कुलौघान्
दौहित्रसूनुरथ तस्य स विश्वरूप: ।
त्वत्स्तोत्रवर्मितमजापयदिन्द्रमाजौ
देव त्वदीयमहिमा खलु सर्वजैत्र: ॥३॥
| षष्ट्या तत: दुहितृभि: |
साठ, तब, पुत्रियों से |
| सृजत: कुल-औघान् |
उत्पन्न किया (विभिन्न) कुल समूहों का |
| दौहित्र-सूनु:-अथ तस्य |
दौहित्र पुत्र तब उसके |
| स विश्वरूप: |
वह विश्वरूप |
| त्वत्-स्तोत्र-वर्मितम्- |
आपके (नारायण) स्तोत्र कवच का |
| अजापयत्-इन्द्रम्- |
जप करवाया इन्द्र को |
| आजौ |
युद्ध में |
| देव |
हे देव! |
| त्वदीय-महिमा |
आपकी महिमा |
| खलु सर्वजैत्र: |
निश्चय ही सर्व जयी है |
तब दक्ष ने अपनी साठ कन्याओं के द्वारा विभिन्न चराचर कुल समूहों को उत्पन्न किया। उसके दौहित्र के पुत्र विश्वरूप ने इन्द्र से नारायण कवच का जप करवाया और युद्ध में विजय प्राप्त करवाई। हे भगवन! निश्चय ही आपकी महिमा सर्व जयी है।
प्राक्शूरसेनविषये किल चित्रकेतु:
पुत्राग्रही नृपतिरङ्गिरस: प्रभावात् ।
लब्ध्वैकपुत्रमथ तत्र हते सपत्नी-
सङ्घैरमुह्यदवशस्तव माययासौ ॥४॥
| प्राक्- |
पूर्वकाल में |
| शूरसेन-विषये |
शूरसेन के राज्य में |
| किल चित्रकेतु: |
निश्चय ही, चित्रकेतु |
| पुत्र-आग्रही नृपति: |
पुत्र के इच्छुक राजा ने |
| अंगिरस: प्रभावात् |
अङ्गिरस के प्रभाव से |
| लब्ध्वा-एक-पुत्रम्- |
प्राप्त किया एक पुत्र |
| अथ तत्र हते सपत्नीसङ्घै:- |
तब वहां (उस पुत्र के) मारे जाने पर सौतों के द्वारा |
| अमुह्यत्-अवश:- |
(वह राजा) सम्मोहित हो कर विवश हो गया |
| तव मायया असौ |
आपकी माया से यह (राजा) |
पूर्वकाल में शूरसेन के राज्य में चित्रकेतु नाम के राजा हुए। पुत्र के इच्छुक राजाने ऋषि अङ्गिरस के प्रभाव से पुत्र प्राप्त किया। लेकिन रानी की सौतों ने उसे मार दिया। दु:ख से कातर राजा आपकी माया से सम्मोहित हो कर अचेतन हो गये।
तं नारदस्तु सममङ्गिरसा दयालु:
सम्प्राप्य तावदुपदर्श्य सुतस्य जीवम् ।
कस्यास्मि पुत्र इति तस्य गिरा विमोहं
त्यक्त्वा त्वदर्चनविधौ नृपतिं न्ययुङ्क्त ॥५॥
| तं नारद:-तु |
उसको नारद ने निश्चय ही |
| समम्-अङ्गिरसा |
साथ में अङ्गिरस के |
| दयालु: |
दयालु (नारद ने) |
| सम्प्राप्य |
(निकट) जा कर |
| तावत्-उपदर्श्य |
फिर (उसको) दिखाया |
| सुतस्य जीवम् |
पुत्र के जीव को |
| कस्य-अस्मि पुत्र(:) इति |
किस का हूं मैं पुत्र इस प्रकार |
| तस्य गिरा |
उसकी (पुत्र की) वाणी से |
| विमोहं त्यक्त्वा |
मोह को त्याग कर |
| त्वत्-अर्चन-विधौ |
आपकी अर्चना के विधान में |
| नृपतिं न्ययुङ्क्त |
राजा प्रवृत्त हो गया |
तब निश्चय ही दयालु नारद अङ्गिरस के संग उस राजा चित्रकेतु के पास गये। वहां उसे उसके पुत्र का जीव दिखाया। पुत्र ने पूछा कि वह किसका पुत्र है? उसकी वाणी से राजा का मोह दूर हो गया और वह आपकी अर्चना के विधान में प्रवृत्त हो गये।
स्तोत्रं च मन्त्रमपि नारदतोऽथ लब्ध्वा
तोषाय शेषवपुषो ननु ते तपस्यन् ।
विद्याधराधिपतितां स हि सप्तरात्रे
लब्ध्वाप्यकुण्ठमतिरन्वभजद्भवन्तम् ॥६॥
| स्तोत्रं च मन्त्रम्-अपि |
स्तोत्र और मन्त्र भी |
| नारदत:-अथ लब्ध्वा |
नारद से तब पा कर |
| तोषाय शेष-वपुष: |
प्रसन्नता के लिये शेष स्वरूप |
| ननु ते तपस्यन् |
निश्चय ही आपकी तपस्या करते हुए |
| विद्याधर-अधिपतितां |
विद्याधर के अधिपत्य को |
| स हि सप्त-रात्रे लब्ध्वा- |
वह ही सात रात्रियों में प्राप्त कर के |
| अपि-अकुण्ठमति:- |
(और) भी अकुण्ठित बुद्धि वाले |
| अन्वभजत्-भवन्तम् |
भजन करने लगे आपका |
राजा चित्रकेतु ने नारद ही से स्तोत्र और मन्त्र पाया और आपके शेष स्वरूप की प्रसन्नता के लिये आपकी तपस्या करने लगे। सात रात्रियों में ही उन्होने विद्याधर के अधिपत्य को प्राप्त कर लिया। इस प्रकार और भी अकुण्ठित और निर्मल बुद्धि वाले हो कर वे आपका भजन करने लगे।
तस्मै मृणालधवलेन सहस्रशीर्ष्णा
रूपेण बद्धनुतिसिद्धगणावृतेन ।
प्रादुर्भवन्नचिरतो नुतिभि: प्रसन्नो
दत्वाऽऽत्मतत्त्वमनुगृह्य तिरोदधाथ ॥७॥
| तस्मै |
उसके लिये (चित्रकेतु के लिये) |
| मृणाल-धवलेन |
कमल नाल के समान श्वेत |
| सहस्र-शीर्ष्णा |
हजार फणो वाले |
| रूपेण |
रूप के द्वारा |
| बद्धनुति-सिद्धगण-आवृतेन |
सतत स्तुति करते हुए सिद्धगणॊं से घिरे हुए |
| प्रादुर्भवन्-अचिरत: |
प्रकट हो कर तुरन्त |
| नुतिभि: प्रसन्न: |
स्तुतियों से प्रसन्न हो कर |
| दत्वा-आत्म-तत्त्वम्- |
दे कर आत्म तत्व ( ज्ञान) को |
| अनुगृह्य |
और अनुग्रह कर के |
| तिरोदधाथ |
अन्तर्धान हो गये |
तदन्तर चित्रकेतु की स्तुतियों से प्रसन्न हो कर आप कमल नाल के समान श्वेत सहस्र फणो वाले स्वरूप से उनके लिये प्रकट हो गये। उस समय आप सतत स्तुति करते हुए सिद्धगणों से घिरे हुए थे। आपने राजापर अनुग्रह कर के उन्हें तुरन्त आत्म तत्व का ज्ञान दिया और अन्तर्धान हो गये।
त्वद्भक्तमौलिरथ सोऽपि च लक्षलक्षं
वर्षाणि हर्षुलमना भुवनेषु कामम् ।
सङ्गापयन् गुणगणं तव सुन्दरीभि:
सङ्गातिरेकरहितो ललितं चचार ॥८॥
| त्वत्-भक्त-मौलि:-अथ स- |
आपके भक्त शिरोमणि फिर वे |
| अपि च |
और भी |
| लक्ष-लक्षं वर्षाणि |
लाख लाख वर्षों तक |
| हर्षुल-मना |
हर्षित मन से |
| भुवनेषु |
समस्त भुवनों में |
| कामम् सङ्गापयन् |
स्वेच्छा से गान करवाते हुए |
| गुणगणं तव |
आपके गुणगणों का |
| सुन्दरीभि: |
सुन्दरी विद्याधरियों के द्वारा |
| सङ्ग-अतिरेक-रहित: |
अत्यन्त अनासक्ति के साथ |
| ललितं चचार |
प्रसन्नता से विचरण करते रहे |
आपके भक्त शिरोमणि राजा चित्रकेतु, प्रसन्न चित्त हो कर, लाख लाख वर्षों तक समस्त भुवनों में, सुन्दरी विद्याधरियों के द्वारा आपके गुण गणों का गान कराते रहे। वे स्वयं अत्यन्त अनासक्ति के सङ्ग स्वेच्छा पूर्वक विचरण करते रहे।
अत्यन्तसङ्गविलयाय भवत्प्रणुन्नो
नूनं स रूप्यगिरिमाप्य महत्समाजे ।
निश्शङ्कमङ्ककृतवल्लभमङ्गजारिं
तं शङ्करं परिहसन्नुमयाभिशेपे ॥९॥
| अत्यन्त-सङ्ग-विलयाय |
पूर्ण रूप से आसक्ति त्यागने के लिये |
| भवत्-प्रणुन्न: नूनं |
आपसे प्रेरित निश्चय ही |
| स रूप्यगिरिम्-आप्य |
वह रूप्य गिरि (कैलाश) पर पहुंच कर |
| महत्-समाजे |
साधु समाज में |
| निश्शङ्कम्- |
निश्शङ्क भाव से |
| अङ्क-कृत-वल्लभम्- |
अङ्क मे लिये हुए पत्नी को (पार्वती को) |
| अङ्गजारिं तं शङ्करं |
काम देव के शत्रु शंकर का |
| परिहसन्- |
परिहास किया |
| उमया-अभिशेपे |
उमा ने (उसे) शाप दे दिया |
अपनी आसक्तियों को पूर्ण रूप से त्यागने के लिये, आप से प्रेरित हो कर, वे रूप्य गिरि - कैलाश पर पहुंचे। वहां साधु समाज में, नि्श्शङ्क भाव से अपनी पत्नि पार्वती को अङ्क में बैठाये हुए शंकर को देख कर, उनका परिहास किया। इस पर उमा ने चित्रकेतु को शापित किया।
निस्सम्भ्रमस्त्वयमयाचितशापमोक्षो
वृत्रासुरत्वमुपगम्य सुरेन्द्रयोधी ।
भक्त्यात्मतत्त्वकथनै: समरे विचित्रं
शत्रोरपि भ्रममपास्य गत: पदं ते ॥१०॥
| निस्सम्भ्रम:- |
अचिन्तित |
| तु-अयम्- |
ही इसने (चित्रकेतु ने) |
| अयाचित-शाप-मोक्ष: |
नहीं मांगते हुए शाप से मुक्ति |
| वृत्रासुरत्वम्-उपगम्य |
वृत्रासुरत्व को प्राप्त कर के |
| सुरेन्द्र-योधी |
इन्द्र से युद्ध करते हुए |
| भक्त्या- |
भक्ति से |
| आत्मतत्त्व-कथनै: |
आत्मतत्व के वर्णन के द्वारा |
| समरे |
युद्ध में |
| विचित्रं |
आश्चर्य है |
| शत्रो:-अपि भ्रमम्- |
शत्रु के भी भ्रम को |
| अपास्य |
दूर करके |
| गत: पदं ते |
चला गया आपके पद को |
चित्रकेतु ने अविचिलित रहते हुए शाप से मुक्ति की भी याचना नहीं की, और वृत्रासुरत्व को प्राप्त कर के इन्द्र से युद्ध किया। युद्ध में ही अत्यन्त भक्ति पूर्वक उन्होंने आत्मतत्व का निरूपण किया। और आश्चर्य है कि उससे शत्रु का भी मोह भ्रम दूर हो गया। फिर वे आप के निवास स्थान को चले गये।
त्वत्सेवनेन दितिरिन्द्रवधोद्यताऽपि
तान्प्रत्युतेन्द्रसुहृदो मरुतोऽभिलेभे ।
दुष्टाशयेऽपि शुभदैव भवन्निषेवा
तत्तादृशस्त्वमव मां पवनालयेश ॥११॥
| त्वत्-सेवनेन |
आपकी सेवा करने से |
| दिति:- |
दिति |
| इन्द्र-वध-उद्यता-अपि |
इन्द्र के वध के लिये उद्यत होते हुए भी |
| तान्-प्रत्युत- |
उनको, बदले में |
| इन्द्र-सुहृद: मरुत:- |
इन्द्र के सुहृद मरुत गण |
| अभिलेभे |
प्राप्त हुए |
| दुष्ट-आशये-अपि |
दूषित इच्छाओं वालों के लिये भी |
| शुभदा-एव |
शुभदायिनी होती हैं |
| भवत्-निषेवा |
आपकी अर्चना |
| तत्-तादृश:-त्वम्- |
वही इस प्रकार के |
| अव मां |
बचाइये मुझ को |
| पवन-आलय-ईश |
हे पवन आलय ईश्वर! |
दिति इन्द्र का वध करने की इच्छुक थी। किन्तु आपकी अर्चना करने से उसे इन्द्र के मित्र मरुत्गणो की प्राप्ति हुई। आपकी अर्चना के प्रभाव से दूषित संकल्पों वालों के भी संकल्प शुभ दायी हो जाते हैं। वही इस प्रकार के आप मेरी रक्षा करें, हे पवनालय के ईश्वर!
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