Shriman Narayaneeyam

दशक 89 | प्रारंभ | दशक 91

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दशक ९०

वृकभृगुमुनिमोहिन्यम्बरीषादिवृत्ते-
ष्वयि तव हि महत्त्वं सर्वशर्वादिजैत्रम् ।
स्थितमिह परमात्मन् निष्कलार्वागभिन्नं
किमपि यदवभातं तद्धि रूपं तवैव ॥१॥

वृक-भृगुमुनि- वृकासुर, भृगुमुनि,
मोहिनी-अम्बरीष- मोहिनी (अवतार), अम्बरीष
आदि-वृत्तेषु-अयि आदि वृतान्तों में, हे प्रभु!
तव हि महत्त्वं आप ही का महत्व
सर्व-शर्व-आदि-जैत्रम् सभी देव गण शिव आदि से श्रेष्ठ है
स्थितम्-इह सिद्ध हो जाता है यहां
परमात्मन् हे परमात्मन!
निष्कल-अर्वाक-अभिन्नं कला रहित, कला सहित, समत्व भाव में
किम्-अपि यत्- कुछ भी जो
अवभातं तत् हि प्रतीत होता है
रूपं तव-एव स्वरूप आपका ही है

वृकासुर, भृगुमुनि, मोहिनी अवतार, अम्बरीष आदि के वृतान्तों में, हे प्रभु! यही सिद्ध होता है कि शिव आदि सभी देव गणों में आप ही का महत्व सर्वोपरि है। हे परमात्मन! कला रहित, कला सहित, अथवा समत्व भाव में जो कुछ भी उद्भासित होता है, आपका ही स्वरूप है।

मूर्तित्रयेश्वरसदाशिवपञ्चकं यत्
प्राहु: परात्मवपुरेव सदाशिवोऽस्मिन् ।
तत्रेश्वरस्तु स विकुण्ठपदस्त्वमेव
त्रित्वं पुनर्भजसि सत्यपदे त्रिभागे ॥२॥

मूर्ति-त्रय-ईश्वर- त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) ईश्वर,
सदाशिव-पञ्चकं (और) सदाशिव, ये पांच
यत् प्राहु: जो कहा है (शैव मत वालों ने)
परात्म-वपु:-एव परमात्मा स्वरूप ही (आप)
सदाशिव:-अस्मिन् सदाशिव इस (मत) में
तत्र-ईश्वर:-तु स वहां (वैष्णव मत में) ईश्वर तो वही (आप ही हैं)
विकुण्ठपद:-त्वम्-एव वैकुण्ठ धाम (निवासी) आप ही
त्रित्वं पुन:-भजसि त्रिमूर्ति को फिर धारण करते हैं
सत्यपदे त्रिभागे सत्य लोक में तीन स्वरूपों में

शैव मतावलम्बी जिन ब्रह्मा, विष्णु, शिव, ईश्वर और सदाशिव का पांच भेदों से वर्णन करते हैं, उनमें सदाशिव तो आप ही हैं। वैष्णव मत में वैकुण्ठ धाम निवासी ईश्वर आप ही हैं। पुन: सत्यलोक में तीन स्वरूपों में फिर आप त्रिमूर्ति धारण करते हैं।

तत्रापि सात्त्विकतनुं तव विष्णुमाहु-
र्धाता तु सत्त्वविरलो रजसैव पूर्ण: ।
सत्त्वोत्कटत्वमपि चास्ति तमोविकार-
चेष्टादिकञ्च तव शङ्करनाम्नि मूर्तौ ॥३॥

तत्र-अपि वहां (त्रिमूर्ति में) भी
सात्त्विक-तनुं तव सात्विक विग्रह आपका
विष्णुम्-आहु:- विष्णु कहा गया है
धाता तु ब्रह्मा निश्चय ही
सत्त्व-विरल:- सत्व से कम
रजसा-एव पूर्ण: रजस ही से पूर्ण हैं
सत्त्व-उत्कटत्वम्-अपि सत्व भरपूर भी
च-अस्ति और होने पर
तम:-विकार- तमस का विकार
चेष्टा-आदिकम्-च चेष्टाओं आदि में (है)
तव शङ्कर-नाम्नि आपके शङ्कर नाम की
मूर्तौ मूर्ति में

वहां त्रिमूर्ति में भी, जो शुद्ध सात्विक स्वरूप है वह आप विष्णु का ही है। ब्रह्मा का स्वरूप कुछ सत्व और अधिक रजो गुण से पूर्ण है। और आपके शङ्कर नाम के स्वरूप में सत्व भरपूर होने पर भी तमस का विकार चेष्टाओं आदि में परिलक्षित होता है।

तं च त्रिमूर्त्यतिगतं परपूरुषं त्वां
शर्वात्मनापि खलु सर्वमयत्वहेतो: ।
शंसन्त्युपासनविधौ तदपि स्वतस्तु
त्वद्रूपमित्यतिदृढं बहु न: प्रमाणम् ॥४॥

तं च त्रिमूर्ति-अतिगतं और उस त्रिमूर्ति से परे
परपूरुषं त्वां परमपुरूष आपको ही
शर्व-आत्मना-अपि शिव के रूप में भी
खलु निश्चय
सर्वमयत्व-हेतो: सभी (प्राणियों के) आत्म स्वरूप होने के कारण
शंसन्ति-उपासन-विधौ आदेश देते हैं उपासना के नियमों में
तत्-अपि स्वत:-तु वह भी यथार्थ में
त्वत्-रूपम्-इति- आपका रूप है इस प्रकार
अति-दृढं बहुत प्रबल
बहु न: प्रमाणम् (और) अनेक हमारे प्रमाण हैं

उस त्रिमूर्ति से परे, हे परमपुरूष! शिव के रूप में भी, सर्वात्म स्वरूप होने के कारण, आपकी ही, उपासना करने का आदेश है। वह भी यथार्थ में आपका ही रूप है। इस प्रकार हमारे पास अनेक प्रबल प्रमाण है।

श्रीशङ्करोऽपि भगवान् सकलेषु ताव-
त्त्वामेव मानयति यो न हि पक्षपाती ।
त्वन्निष्ठमेव स हि नामसहस्रकादि
व्याख्यात् भवत्स्तुतिपरश्च गतिं गतोऽन्ते ॥५॥

श्री शङ्कर:-अपि श्री शङ्कराचार्य ने भी
भगवान् जो भगवतपाद थे,
सकलेषु तावत्- (आपके) सकारात्मक रूपों में तब
त्वाम्-एव मानयति आपको ही मानते हैं
य:-न हि पक्षपाती जो नही हैं पक्षपाती
त्वत्-निष्ठम्-एव आप में ही एकनिष्ठ (थे)
स हि नाम-सहस्रक-आदि उन्हों ने ही विष्णु सहस्र नाम आदि की
व्याख्यात् व्याख्या की है
भवत्-स्तुति-पर:-च और आपकी स्तुति में ही दत्तचित्त
गतिं गत:-अन्ते समाधि को प्राप्त हुए अन्त में

भगवतपाद शङ्कराचार्य भी आपके सभी साकार स्वरूपों में विष्णु को ही मानते थे। वे किसी देव विशेष के पक्षपाती नहीं थे। वे आप में ही एकनिष्ठ थे और उन्हों ने श्री विष्णुसहस्र नाम आदि की व्याख्या भी की थी। आप ही की स्तुति में दत्तचित्त वे अन्त में समाधि को प्राप्त हुए।

मूर्तित्रयातिगमुवाच च मन्त्रशास्त्र-
स्यादौ कलायसुषमं सकलेश्वरं त्वाम् ।
ध्यानं च निष्कलमसौ प्रणवे खलूक्त्वा
त्वामेव तत्र सकलं निजगाद नान्यम् ॥६॥

मूर्ति-त्रय-अतिगम्- मूर्ति त्रय के परे
उवाच च मन्त्र-शास्त्रस्य-आदौ और कहा है (शङ्कराचार्य ने) मन्त्र शास्त्र के आरम्भ में (कि)
कलाय-सुषमम् कलाय (पुष्प) के समान सुन्दर
सकल-ईश्वरं त्वाम् सर्वेश्वर आपको ही
ध्यानं च निष्कलम्- और ध्यान करते हुए निष्कल की
असौ प्रणवे खलु-उक्त्वा इन्होंने प्रणव में भी निस्सन्देह वर्णन किया
त्वाम्-एव तत्र सकलं आपको ही, वहां कलायुक्त
निजगाद न-अन्यम् बताया, नहीं किसी और (देव) को

इसके अतिरिक्त, शङ्कराचार्य ने मन्त्र शास्त्र के प्रारम्भ में ही, त्रिमूर्ति के परे, कलाय पुष्प के समान सुन्दर आपको ही सर्वेश्वर बताया है। निष्कल ब्रह्म का ध्यान करते हुए, प्रणव का वर्णन करते हुए, वहां भी कलायुक्त ईश्वर आपको ही बताया है, अन्य देवों को नहीं।

समस्तसारे च पुराणसङ्ग्रहे
विसंशयं त्वन्महिमैव वर्ण्यते ।
त्रिमूर्तियुक्सत्यपदत्रिभागत:
परं पदं ते कथितं न शूलिन: ॥७॥

समस्त-सारे और समस्त (शास्त्रों) के सार
च पुराण-सङ्ग्रहे (जो) पुराण के संग्रह में (हैं)
विसंशयं निस्सन्देह (वहां भी)
त्वत्-महिमा-एव वर्ण्यते आप की महिमा ही वर्णित है
त्रिमूर्ति-युक्- त्रिमूर्ति युक्त
सत्यपद-त्रिभागत: परं सत्यलोकस्थ त्रिलोकों के विभाग से परे
पदं ते कथितं निवास (वैकुण्ठ) आपका (ही) कहा गया है
न शूलिन: न कि शिव का

पुराण संग्रह में जहां समस्त पुराणों का सार निहित है, निस्सन्देह, वहां भी आपकी ही महिमा का वर्णन है। त्रिमूर्ति युक्त, सत्यलोकस्थ त्रिलोकों के विभाग के परे, जो वैकुण्ठ है, वह आप ही का निवास है, शिव का नहीं।

यत् ब्राह्मकल्प इह भागवतद्वितीय-
स्कन्धोदितं वपुरनावृतमीश धात्रे ।
तस्यैव नाम हरिशर्वमुखं जगाद
श्रीमाधव: शिवपरोऽपि पुराणसारे ॥८॥

यत् ब्राह्मकल्प इह वह (जो) ब्राह्मकल्प में यहां
भागवत-द्वितीय-स्कन्ध-उदितं भागवत के द्वितीय स्कन्ध में कहा गया है
वपु:-अनावृतम्- स्वरूप का दर्शन दिया था
ईश धात्रे हे ईश! ब्रह्मा के लिए
तस्य-एव नाम उस ही (स्वरूप) का नाम
हरि-शर्व-मुखं हरि, शिव आदि
जगाद श्रीमाधव: कहा श्री माधवाचार्य ने
शिव-पर:-अपि (वे स्वयं) शिव भक्त होते हुए भी
पुराण-सारे पुराण सार में (कहते हैं)

यहां, इस ब्राह्मकल्प में आपने जिस स्वरूप का दर्शन दिया था, उसी का भागवत के द्वितीय स्कन्ध में वर्णन है। हे ईश! शिव भक्त माधवाचार्य ने भी पुराण्सार में, उस स्वरूप का, हरि शिव आदि नाम से ही वर्णन किया हैं।

ये स्वप्रकृत्यनुगुणा गिरिशं भजन्ते
तेषां फलं हि दृढयैव तदीयभक्त्या।
व्यासो हि तेन कृतवानधिकारिहेतो:
स्कान्दादिकेषु तव हानिवचोऽर्थवादै: ॥९॥

ये स्व-प्रकृति-अनुगुणा जो (लोग) अपनी प्रकृति के अनुसार
गिरिशं भजन्ते शिव का पूजन करते हैं
तेषां फलं हि दृढया-एव उनके लिये फल ही होता है प्रगाढता से ही
तदीय-भक्त्या उनकी भक्ति की
व्यास:-हि तेन कृतवान्- व्यास ने इसी कारण प्रतिपादन किया है
अधिकार-हेतो: अधिकारियों के लिए
स्कान्द-आदिकेषु स्कन्द आदि (पुराणों में)
तव हानि-वच:- आपके लिए लघु वचन
अर्थवादै: गूढार्थ वाद से

जो लोग अपनी प्रकृति के अनुसार शिव का पूजन करते हैं, उनको उनकी भक्ति की प्रगाढता के अनुरूप ही फल मिलता है ऐसा व्यास ने प्रतिपादन किया है। इसी कारण स्कन्द आदि पुराणो में व्यास ने, अधिकारियों के हित में, गूढ अर्थवाद से, आपके लिए निम्न वचनों का प्रयोग किया है।

भूतार्थकीर्तिरनुवादविरुद्धवादौ
त्रेधार्थवादगतय: खलु रोचनार्था: ।
स्कान्दादिकेषु बहवोऽत्र विरुद्धवादा-
स्त्वत्तामसत्वपरिभूत्युपशिक्षणाद्या: ॥१०॥

भूत-अर्थ-कीर्ति:- भूतार्थ की अतिशयोक्ति
अनुवाद-विरुद्ध-वादौ अनुवाद और विरुद्धवाद
त्रेधा-अर्थ-वाद-गतय: इन तीनों में अर्थवाद के सिद्धान्त हैं
खलु रोचन-अर्था: निश्चय ही रोचक बनाने के लिए
स्कान्द्-आदिकेषु स्कन्द आदियों में
बहव:-अत्र अनेक यहां
विरुद्ध-वादा:- विरुद्ध वाचक वचन (मिलते) हैं
त्वत्-तामसत्व- आपके तामसिकता
परिभूति-उपशिक्षण-आद्या: आपकी पराजय, आपकी शिक्षा, इत्यादि (रूप में)

अर्थवाद के तीन सिद्धान्त हैं - भूतार्थ की अतिशयोक्ति, उनका अनुवाद और उनका विरुद्धवाद। यह निश्चय ही विषय वस्तु को रोचक बनाने के लिए है। स्कन्द आदि में अनेक विरुद्ध वाचक वचन मिलते हैं - यथा आपकी तामसिकता, आपकी पराजय और आपके प्रशिक्षण के विषय में।

यत् किञ्चिदप्यविदुषाऽपि विभो मयोक्तं
तन्मन्त्रशास्त्रवचनाद्यभिदृष्टमेव ।
व्यासोक्तिसारमयभागवतोपगीत
क्लेशान् विधूय कुरु भक्तिभरं परात्मन् ॥११॥

यत्-किञ्चित्-अपि- जो कुछ भी
अविदुषा-अपि अज्ञान वश ही
विभो मया-उक्तं हे विभो! मैने कहा है
तत्-मन्त्रशास्त्र-वचनादि- वह मन्त्र शास्त्र के वचन आदि
अभिदृष्टम्-एव के अनुसार ही
व्यास-उक्ति-सार-मय- व्यास के द्वारा कहे गए सार भूत
भागवत-उपगीत भागवत आदि में गाए गए (के अनुसार) ही है
क्लेशान् विधूय क्लेशों को नष्ट कर के
कुरु भक्तिभरं करिए (मेरी) भक्ति सुदृढ
परात्मन् हे परात्मन!

हे विभो! मैने अज्ञान वश आपका जो कुछ भी गुणगान किया है, वह मन्त्र शास्त्र सम्मत है और व्यास के वचनों के सार, भागवत आदि में गाए गए आपकी महानता के अनुसार ही है। हे परात्मन! मेरे क्लेशों को नष्ट करके मेरी भक्ति को सुदृढ कीजिए।

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