Shriman Narayaneeyam

दशक 84 | प्रारंभ | दशक 86

English


दशक ८५

ततो मगधभूभृता चिरनिरोधसंक्लेशितं
शताष्टकयुतायुतद्वितयमीश भूमीभृताम् ।
अनाथशरणाय ते कमपि पूरुषं प्राहिणो-
दयाचत स मागधक्षपणमेव किं भूयसा ॥१॥

तत: मगध-भूभृता तदनन्तर मगध राजा के द्वारा
चिर-निरोध-संक्लेशितं बहुत समय से बन्दी बनाए गए, और दु:ख सहते हुए
शत-अष्टक-युत-अयुत-द्वितयम्- शत अष्ट के साथ दस हजार द्विगुणित २०८००
ईश हे ईश्वर!
भूमीभृताम् राजाओं ने
अनाथ-शरणाय ते अशरणों के शरण आपके (पास)
कम्-अपि पूरुषम् किसी दूत को
प्राहिणोत्-अयाचत स भेजा, प्रार्थना की उसने
मागध-क्षपणम्-एव मगधराज के वध की ही
किम् भूयसा और क्या कहा जाय

हे ईश्वर! तदनन्तर, मगध राजा जरासन्ध के द्वारा, बहुत समय से बन्दी बनाए गए २०८०० दु:खी और पीडित राजाओं ने अपने किसी दूत को, अशरणों के शरण आपके पास भेजा। और क्या कहा जाये!! उसने आपसे जरासन्ध के वध की ही याचना की।

यियासुरभिमागधं तदनु नारदोदीरिता-
द्युधिष्ठिरमखोद्यमादुभयकार्यपर्याकुल: ।
विरुद्धजयिनोऽध्वरादुभयसिद्धिरित्युद्धवे
शशंसुषि निजै: समं पुरमियेथ यौधिष्ठिरीम् ॥२॥

यियासु:- (आप के) युद्ध करने को उत्सुक
अभिमागधं साथ में मगधराज के
तदनु नारद-उदीरितात्- उसी समय नारद के द्वारा कहे जाने पर
युधिष्ठिर-मख-उद्यमात्- युद्धिष्ठिर के यज्ञ की योजना के विषय में
उभय-कार्य-पर्याकुल: दोनों कार्यों के करने की दुविधा में,
विरुद्ध-जयिन:-अध्वरात्- शत्रुओं से विजय (से ही) यज्ञ का अनुष्ठान
उभय-सिद्धि:-इति- दोनों की सिद्धि होगी, इस प्रकार
उद्धवे शशंसुषि उद्ध्व की मन्त्रणा से
निजै: समं स्वजनों के साथ
पुरम्-इयेथ पुरी को आए
यौधिष्ठिरीम् युधिष्ठिर की (इन्द्रप्रस्थ को)

आप मगधराज जरासन्ध से युद्ध करने को उद्यत थे। उसी समय नारद के द्वारा आपको सन्देश मिला कि युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ की योजना बना रहे हैं। आप इसी दुविधा में थे कि दोनों कार्यों मे से किसको प्राथमिकता दी जाय। उद्धव ने आपको मन्त्रणा दी कि 'यज्ञ के लिए शत्रुओं पर विजय तो अश्यम्भावी है'। इस पर आप अपने स्वजनों के साथ युधिष्ठिर की नगरी इन्द्रप्रस्थ चले गए।

अशेषदयितायुते त्वयि समागते धर्मजो
विजित्य सहजैर्महीं भवदपाङ्गसंवर्धितै: ।
श्रियं निरुपमां वहन्नहह भक्तदासायितं
भवन्तमयि मागधे प्रहितवान् सभीमार्जुनम् ॥३॥

अशेष-दयिता-युते समस्त पत्नियों के साथ
त्वयि समागते आपके आ जाने पर
धर्मज: विजित्य युधिष्ठिर ने जीत कर
सहजै:-महीं भाइयों के साथ पृथ्वी को
भवत्-अपाङ्ग-संवर्धितै: आपकी कृपा दृष्टि से परिवर्धित
श्रियं निरुपमां लक्ष्मी अनुपम
वहन्-अहह प्राप्त की, अहो
भक्त-दासायितं भक्तों की दासता (दिखाने वाले)
भवन्तम्-अयि आपको अयि
मागधे प्रहितवान् मगध भेज दिया
सभीम-अर्जुनम् साथ में भीम और अर्जुन के

अपनी समस्त पत्नियों के साथ आपके आ जाने पर, युधिष्ठिर ने भाइयों के साथ पूरी पृथ्वी को जीत लिया और आपकी कृपा दृष्टि से अनुपम लक्ष्मी प्राप्त की। ऐ भगवन! भक्तों के प्रति दास्य भाव रखने वाले आपको युधिष्ठिर ने भीम और अर्जुन के साथ मगध भेज दिया।

गिरिव्रजपुरं गतास्तदनु देव यूयं त्रयो
ययाच समरोत्सवं द्विजमिषेण तं मागधम् ।
अपूर्णसुकृतं त्वमुं पवनजेन संग्रामयन्
निरीक्ष्य सह जिष्णुना त्वमपि राजयुद्ध्वा स्थित: ॥४॥

गिरिव्रजपुरं गिरिव्रज पुर को
गता:-तदनु जा कर तब
देव यूयं त्रय: हे देव! आप लोगों तीनों ने
ययाच समर-उत्सवं याचना की युद्ध करने की
द्विज-मिषेण ब्राह्मण के वेष में
तं मागधं उस मगधराज को
अपूर्ण-सुकृतं (जो) कम था पुण्य कर्मों में
तु-अमुं निश्चय ही उसको
पवनजेन संग्रामयन् भीम के साथ युद्ध करवा कर
निरीक्ष्य सह जिष्णुना देखने लगे साथ में अर्जुन के
त्वम्-अपि आप भी
राज-युद्ध्वा स्थित: राजाओं को लडवा कर खडे हुए

हे देव! गिरिव्रजपुर जा कर आप तीनों ने ब्राह्मण के वेष में जरासन्ध से युद्ध करने की याचना की। पुण्य कर्मों से सर्वथा विहीन मगधराज के साथ भीम को लडवा दिया और अर्जुन के साथ खडे खडे आप राजाओं की उस लडाई को देखते रहे।

अशान्तसमरोद्धतं बिटपपाटनासंज्ञया
निपात्य जररस्सुतं पवनजेन निष्पाटितम् ।
विमुच्य नृपतीन् मुदा समनुगृह्य भक्तिं परां
दिदेशिथ गतस्पृहानपि च धर्मगुप्त्यै भुव: ॥५॥

अशान्त्-समर-उद्धतं (उस) उग्र युद्ध में उद्दण्ड (जरासन्ध को)
विटप-पाटना-संज्ञया टहनी को चीरने के संकेत से
निपात्य जरस:-सुतं मार के जरा के पुत्र को
पवनजेन निष्पाटितम् भीम के द्वारा चीर कर
विमुच्य नृपतीन् छुडवा कर राजाओं को
मुदा समनुगृह्य हर्ष से सम्मान कर के
परां भक्तिं दिदेशिथ परा भक्ति दे दी
गत: स्पृहान्-अपि नहीं इच्छाएं जिनको, उनको भी
च धर्म-गुप्तै भुव: और धर्म पूर्वक पालन करने के लिए पृथ्वी

उस उग्र युद्ध में जरासन्ध उद्दण्ड होता जा रहा था। तब आपने टहनी को चीर कर भीम को संकेत दिया। इस पर भीम ने जरा के पुत्र को चीर कर उसको मार दिया। तत्पश्चात आपने बन्दी राजाओं को छुडवा कर उनको सम्मान सहित परा भक्ति का वर दिया। समस्त कामनाओं से रहित उन राजाओं को आपने धर्म पूर्वक पालन करने के लिए राज्य भी दे दिया।

प्रचक्रुषि युधिष्ठिरे तदनु राजसूयाध्वरं
प्रसन्नभृतकीभवत्सकलराजकव्याकुलम् ।
त्वमप्ययि जगत्पते द्विजपदावनेजादिकं
चकर्थ किमु कथ्यते नृपवरस्य भाग्योन्नति: ॥६॥

प्रचक्रुषि अनुष्ठान करते हुए
युधिष्ठिरे युधिष्ठिर के
तदनु तब
राजसूय-अध्वरं राजसूय यज्ञ के
प्रसन्न-भृतकी-भवत्- आनन्द से सेवक बन कर
सकल-राजक-व्याकुलम् समस्त राजा जन कार्यरत हुए
त्वम्-अपि- आप ने भी
अयि जगत्पते अयि जगत्पते
द्विज-पद-अवनेज- ब्राह्मणों के पग प्रक्षालण
आदिकं चकर्थ आदि (कार्यों को) किया
किमु कथ्यते क्या कहा जाय
नृप-वरस्य नृपश्रेष्ठ (युधिष्ठर) के
भाग्य-उन्नति: सौभाग्य के उत्तंस की

जिस समय युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान में रत थे, समस्त राजा गण आनन्द से सेवकों की भांति विभिन्न कार्यों में व्यस्त थे। हे जगत्पते! आप भी ब्राह्मणों के चरण प्रक्षालण आदि कार्यों मे लगे हुए थे। नृपश्रेष्ठ युधिष्ठर के सौभाग्य के उत्तंस के विषय में क्या कहा जाये?

तत: सवनकर्मणि प्रवरमग्र्यपूजाविधिं
विचार्य सहदेववागनुगत: स धर्मात्मज: ।
व्यधत्त भवते मुदा सदसि विश्वभूतात्मने
तदा ससुरमानुषं भुवनमेव तृप्तिं दधौ ॥७॥

तत: सवन-कर्मणि तत्पश्चात हवन कर्म के समय
प्रवरम-अग्र्य-पूजा-विधिं श्रेष्ठ (पुरुष) की अग्र्य पूजा विधि को
विचार्य ध्यान में रख कर
सहदेव-वाक्-अनुगत: सहदेव के कथनानुसार
स धर्मात्मज: उन धर्मराज (युधिष्ठिर) ने
व्यधत्त भवते सम्पन्न किया आप में
मुदा सदसि हर्षित सभा में
विश्वभूतात्मने समस्त प्राणियों के आत्मा स्वरूप
तदा स-सुर-मानुषं उस समय देवों के सहित मनुष्य
भुवनम्-एव समस्त संसार ही
तृप्तिम् दधौ सन्तुष्ट हो गया

तत्पश्चात हवन क्रिया के समय श्रेष्ठ पुरुष की अग्र पूजा विधि को ध्यान में रख कर सहदेव के कथनानुसार धर्मराज युधिष्ठिर ने वह क्रिया, हर्षित सभा के मध्य , समस्त प्राणियों के आत्मा स्वरूप आप पर सम्पन्न की। इससे देवों सहित मनुष्य गण एवं समस्त संसार ही सन्तुष्ट हो गया।

तत: सपदि चेदिपो मुनिनृपेषु तिष्ठत्स्वहो
सभाजयति को जड: पशुपदुर्दुरूढं वटुम् ।
इति त्वयि स दुर्वचोविततिमुद्वमन्नासना-
दुदापतदुदायुध: समपतन्नमुं पाण्डवा: ॥८॥

तत: सपदि चेदिप: तब तुरन्त चेदिराज (शिशुपाल)
मुनि-नृपेषु मुनियों और राजाओं के बीच
तिष्ठत्सु-अहो बैठे हुए, अहो
सभा-जयति सभा पूजती है
क: जड: किस मूर्ख को
पशुप-दुर्दुरूटं वटुम् ग्वाले के नीच छोकरे को
इति त्वयि स इस प्रकार आप पर वह
दुर्वच:-विततम्- दुर्वचनों की बौछार
उद्वमन्- उगलते हुए
आसनात्-उदापतत्- आसन से उछल पडा
उदायुध: खींच कर शस्त्रों को
समपतन्-अमुं सामना किया उसका
पाण्डवा: पण्डवों ने

अहो! अचानक राजाओं और मुनियों के बीच बैठे हुए चेदिराज शिशुपाल, 'सभा किस मूर्ख उछृङ्खल ग्वाले के छोकरे को पूज रही है!' कहते हुए आप पर दुर्वचनों की बौछार उगलते हुए, शस्त्रों को खींचते हुए, अपने आसन से उछल पडा। उस समय पाण्डवों ने उसका सामना किया।

निवार्य निजपक्षगानभिमुखस्यविद्वेषिण-
स्त्वमेव जहृषे शिरो दनुजदारिणा स्वारिणा ।
जनुस्त्रितयलब्धया सततचिन्तया शुद्धधी-
स्त्वया स परमेकतामधृत योगिनां दुर्लभाम् ॥९॥

निवार्य निज-पक्षगान् संवारित कर के अपने पक्ष वालों को
अभिमुखस्य विद्वेषिण:- सम्मुख (खडे हुए) वैरी (शिशुपाल) का
त्वम्-एव जहृषे शिर: आपने ही काट दिया शिर
दनुज-दारिणा स्व-अरिणा असुरों को विदीर्ण करने वाले अपने चक्र से
जनु:-त्रितय-लब्धया जन्म तीन (में) प्राप्त कर के
सतत-चिन्तया निरन्तर स्मरण (आपका)
शुद्ध-धी:-त्वया स पवित्र चित्त वाला, आपके साथ, वह
पर-एकताम्-अधृत परम एकता को प्राप्त हो गया
योगिनां दुर्लभाम् (जो) योगियों को भी दुर्लभ है

अपने मित्र पाण्डवों को संवरित कर के, आपने स्वयं अपने असुर विदारण चक्र से सम्मुख खडे हुए उस वैरी शिशुपाल का शिर काट दिया। तीन जन्मों में ( हिरण्यकशिपु, रावण और शिशुपाल) निरन्तर आपका स्मरण करने से पवित्र चित्त वाले उसने आपके साथ, योगियों को भी दुर्लभ. परम एकत्म को प्राप्त कर लिया।

तत: सुमहिते त्वया क्रतुवरे निरूढे जनो
ययौ जयति धर्मजो जयति कृष्ण इत्यालपन्।
खल: स तु सुयोधनो धुतमनास्सपत्नश्रिया
मयार्पितसभामुखे स्थलजलभ्रमादभ्रमीत् ॥१०॥

तत: सुमहिते तदनन्तर महान
त्वया क्रतुवरे आपके द्वारा यज्ञ के
निरूढे जन:-ययौ सम्पन्न होने पर, लोक जन चले गए
जयति धर्मज: जय हो धर्मराज की
जयति कृष्ण जय हो कृष्ण की
इति-आलपन् इस प्रकार कहते हुए
खल: स तु दुष्ट वह किन्तु
सुयोधन: धुतमना:- दुर्योधन ईर्ष्यालू
सपत्न-श्रिया शत्रु की सम्पन्नता से
मय-अर्पित-सभा-मुखे मय दानव की दी हुई सभा के सामने
स्थल-जल-भ्रमात्- स्थल और जल के भ्रम से
अभ्रमीत् भ्रमित हो गया

तदनन्तर आपके निर्देश में उस महान यज्ञ के सुसम्पन्न हो जाने पर लोक जन 'धर्मराज की जय हो, कृष्ण की जय हो', कहते हुए चले गए। किन्तु दुष्ट दुर्योधन, जो अपने शत्रुओं की सम्पन्नता से ईर्ष्यालू था, मय दानव के द्वारा पाण्डवों को दी गई सभा के द्वार पर स्थल और जल के भ्रम से भ्रमित हो गया।

तदा हसितमुत्थितं द्रुपदनन्दनाभीमयो-
रपाङ्गकलया विभो किमपि तावदुज्जृम्भयन् ।
धराभरनिराकृतौ सपदि नाम बीजं वपन्
जनार्दन मरुत्पुरीनिलय पाहि मामामयात् ॥११॥

तदा हसितम्-उत्थितं उस समय हंसी निकल गई
द्रुपदनन्दना-भीमयो:- द्रौपदी और भीम की
अपाङ्ग-कलया तिरछी आंखों से देख कर
विभो किमपि तावत- हे विभो! किञ्चित मात्र तब
उज्जृम्भयन् उत्साहित कर के
धरा-भर-निराकृतौ पृथ्वी के भार को समाप्त करने में
सपदि नाम तुरन्त ही
बीजं वपन् बीज को बो दिया
जनार्दन हे जनार्दन
मरुत्पुरीनिलय हे मरुत्पुरीनिलय
पाहि माम्-आमयात् रक्षा करें मेरी रोगों से

उस समय द्रौपदी और भीम की हंसी निकल गई। हे विभो! उनकी आंखों की तिरछी भंगिमा ने किंचित मात्र ही सही, दुर्योधन के रोष को प्रेरित कर दिया। इस प्रकार आपने धरती के भार को समाप्त करने का बीज तुरन्त ही बो दिया। हे जनार्दन! हे मरुत्पुरीनिलय! रोगों से मेरी रक्षा करें।

दशक 84 | प्रारंभ | दशक 86