Shriman Narayaneeyam

दशक 57 | प्रारंभ | दशक 59

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दशक ५८

त्वयि विहरणलोले बालजालै: प्रलम्ब-
प्रमथनसविलम्बे धेनव: स्वैरचारा: ।
तृणकुतुकनिविष्टा दूरदूरं चरन्त्य:
किमपि विपिनमैषीकाख्यमीषांबभूवु: ॥१॥

बाल-जालै: बालकों के समुह (के साथ)
प्रलम्ब-प्रमथन- (और) प्रलम्ब के वध (के कारण)
सविलम्बे (आपको) विलम्ब होने से
धेनव: स्वैर-चारा: गौएं स्वतन्त्रता से
तृण-कुतुक-निविष्टा घास (खाने के लिये) उद्यत
दूर-दूरं चरन्त्य: दूर दूर तक चरती हुई
किमपि विपिनम्- किसी वन में
ऐषीक-आख्यम्- ऐषिक नाम के
ईषां बभूवु: पास में आईं

बालकों के साथ क्रीडा करने में व्यस्त और प्रलम्बासुर केवध आदि के कारण आपको विलम्ब हो गया। गौएं घास खाने को समुद्यत हो कर स्वतन्त्रता से दूर दूर तक चरते हुए ऐषिक नामक वन के समीप आ गईं।

अनधिगतनिदाघक्रौर्यवृन्दावनान्तात्
बहिरिदमुपयाता: काननं धेनवस्ता: ।
तव विरहविषण्णा ऊष्मलग्रीष्मताप-
प्रसरविसरदम्भस्याकुला: स्तम्भमापु: ॥२॥

अनधिगत नहीं अनुभव हो रही थी
निदाघ-क्रौर्यं- ग्रीष्म की क्रूरता
वृन्दावन-अन्तात् वृन्दावन के अन्त से
बहि:-इदम्-उपयाता: बाहर यह जो आ गई थीं
काननं धेनव:-ता: वन के अन्त में, वे गौएं
तव विरह-विषण्णा आपके विरह से कातर
ऊष्मल-ग्रीष्म-ताप- अत्यधिक ग्रीष्म के ताप से
प्रसर-विसरत्- (जो) बढ रहा था और फैल रहा था
अम्भस्य-आकुला: जल के लिये व्याकुल
स्तम्भम्-आपु: मूर्छा को प्राप्त हो गईं

वृन्दावन के अन्त तक ग्रीष्म की क्रूरता का अनुभव नहीं हो रहा था। किन्तु वे गौएं उसके भी बाहर वन के अन्त में आ गईं थी। एक तो वे आपके विरह में कातर थीं, ऊपर से ग्रीष्म का ताप अत्यधिक मात्रा में बढ कर फैल रहा था, जिसके फलस्वरूप जल के लिये व्याकुल हो कर वे मूर्छितप्राय: हो गई थीं।

तदनु सह सहायैर्दूरमन्विष्य शौरे
गलितसरणिमुञ्जारण्यसञ्जातखेदम् ।
पशुकुलमभिवीक्ष्य क्षिप्रमानेतुमारा-
त्त्वयि गतवति ही ही सर्वतोऽग्निर्जजृम्भे ॥३॥

तदनु सह सहायै:- उसके बाद सङ्ग में सहायकों के
दूरम्-अन्विष्य दूर तक खोजते हुए
शौरे हे शौरे!
गलित-सरणि- भूल जाने से रास्ता
मुञ्ज-अरण्य- मुञ्ज अरण्य को
सञ्जात-खेदम् अभिभूत हुई क्लेश से
पशुकुलम्-अभिवीक्ष्य पशु समूह को देख कर
क्षिप्रम्-आनेतुम्- शीघ्र लाने के लिये
आरात्-त्वयि गतवति तुरन्त आपके जाने पर
ही ही सर्वत:- हाय हाय चारों ओर
अग्नि;-जजृम्भे अग्नि प्रज्वलित हो गई

हे शौरे! उसके बाद अपने सहायक गोपबालकों के साथ आप दूर तक गौओं को खोजने के लिये गये। मार्ग भूल जाने के कारण वे मुञ्जारण्य की ओर चली गईं। क्लेश से अभिभूत गौओं को देख कर उनको शीघ्र लाने के लिये आप तुरन्त ही प्रस्तुत हुए, किन्तु, हाय हाय, उसी समय चारों ओर अग्नि प्रज्वलित हो उठी।

सकलहरिति दीप्ते घोरभाङ्कारभीमे
शिखिनि विहतमार्गा अर्धदग्धा इवार्ता: ।
अहह भुवनबन्धो पाहि पाहीति सर्वे
शरणमुपगतास्त्वां तापहर्तारमेकम् ॥४॥

सकल-हरिति दीप्ते सभी दिशायें प्रज्वलित हो गई
घोर-भाङ्कार-भीमे भयंकर लपटों के गर्जन के साथ
शिखिनि उस अग्नि के
विहत-मार्गा मार्ग को रोक लेने से
अर्ध-दग्धा: आधे जले हुए
इव-आर्ता: से दु:खी
अहह भुवनबन्धो अहो! भुवन बन्धो!
पाहि पाहि-इति रक्षा करो, रक्षा करो' इस प्रकार
सर्वे शरणम्-उपगता:- सभी शरण मे चले गये
त्वां ताप-हर्तारम्-एकम् आपके, एकमात्र तापहर्ता के

उस अग्नि से सभी दिशाएं प्रज्वलित हो उठीं। भयंकर लपटों से घोर गर्जन होने लगा और मार्ग भी अवरुद्ध हो गया। हे भुवनबन्धो! आधे जले हुए से और अत्यन्त दु:खी वे 'रक्षा करो, रक्षा करो' आर्तनाद करते हुए, एकमात्र तापहर्ता आपकी शरण में चले आये।

अलमलमतिभीत्या सर्वतो मीलयध्वं
दृशमिति तव वाचा मीलिताक्षेषु तेषु ।
क्व नु दवदहनोऽसौ कुत्र मुञ्जाटवी सा
सपदि ववृतिरे ते हन्त भाण्डीरदेशे ॥५॥

अलम्-अलम्- बस करो बस करो
अति-भीत्या अत्यन्त भय को
सर्वत: मीलयध्वं सब ओर से बन्द कर लो
दृशम्-इति दृष्टि को इस प्रकार
तव वाचा आपके कहने से
मीलित-अक्षेषु बन्द कर लेने पर नेत्रों के
तेषु क्व नु उन लोगों के, कहां थी
दव-दहन:-असौ दावाग्नि यह
कुत्र मुञ्जा-अटवी सा कहां थी मुञ्जारण्य वह
सपदि ववृतिरे ते क्षण में पहुंच गये वे
हन्त भाण्डीर-देशे हाय! भाण्डीर क्षेत्र में

' भयभीत मत होओ। सब ओर से अपनी दृष्टि बन्द कर लो।' इस प्रकार आपके कहने पर, जब उन लोगों ने नेत्र बन्द कर लिये, तब कहां थी वह अग्नि और कहां था वह मुञ्जारण्य? आश्चर्य! क्षण भर में वे सब भाण्डीर क्षेत्र में पहुंच गये।

जय जय तव माया केयमीशेति तेषां
नुतिभिरुदितहासो बद्धनानाविलास: ।
पुनरपि विपिनान्ते प्राचर: पाटलादि-
प्रसवनिकरमात्रग्राह्यघर्मानुभावे ॥६॥

जय जय 'जय जय
तव माया आपकी माया
का-इयम् क्या है यह
ईश- हे ईश्वर!'
इति तेषां इस प्रकार उनके
नुतिभि:-उदितहास: स्तुति करने पर, हंसते हुए
बद्ध-नाना-विलास: करते हुए नाना प्रकार की क्रीडाएं
पुन:-अपि फिर भी
विपिन-अन्ते वन के अन्त में
प्राचर: पाटलादि- विचरण करते रहे, पाटल आदि
प्रसव-निकर- (पुष्पों) के गुच्छों से
मात्र-ग्राह्य- मात्र ज्ञान होता था (जहां)
घर्म-अनुभावे ग्रीष्म के अनुभव का

जय हो जय हो! यह कैसी है आपकी माया।' इस प्रकार उन्होंने आपकी स्तुति की। तब हंसते हुए आप उस वन के अन्त में नाना प्रकार की क्रीडाएं करते हुए विचरते रहे। उस समय उस वन में केवल पाटल आदि पुष्पों के खिले हुए गुच्छों से ही ग्रीष्म ऋतु का भान हो रहा था।

त्वयि विमुखमिवोच्चैस्तापभारं वहन्तं
तव भजनवदन्त: पङ्कमुच्छोषयन्तम् ।
तव भुजवदुदञ्चद्भूरितेज:प्रवाहं
तपसमयमनैषीर्यामुनेषु स्थलेषु ॥७॥

त्वयि विमुखम्- आप से विमुख (जन)
इव-उच्चै:- जैसे अत्यधिक
तापभारं वहन्तम् ताप के भार को सहते हैं
तव भजन-वदन्त: आपके भजन करने वाले (लोगों के) जैसे
पङ्कम्- (उनके) मल (जैसे)
उच्छोषयन्तम् सुखा देते हैं
तव भुज-वत्- आपकी भुजाओं के समान
उदञ्चत्- प्रकाशित करती हैं
भूरि-तेज-प्रवाहं अत्यन्त तेज का प्रवाह
तप-समयम्- (वैसा) ग्रीष्म समय
अनैषी: बिताया
यामुनेषु स्थलेषु यमुना के किनारों पर

जिस प्रकार के ताप का कष्ट आप से विमुख जन सहन करते हैं, आपके भजन गाने वालों की भक्ति के ताप से जैसे पाप पंक सूख जाते हैं, और जिस प्रकार के अतीव तेजोमय प्रवाह को आपकी भुजाएं प्रकाशित करती हैं, वैसे ग्रीष्म ऋतु के दिन आपने यमुना के तटों पर व्यतीत किये।

तदनु जलदजालैस्त्वद्वपुस्तुल्यभाभि-
र्विकसदमलविद्युत्पीतवासोविलासै: ।
सकलभुवनभाजां हर्षदां वर्षवेलां
क्षितिधरकुहरेषु स्वैरवासी व्यनैषी: ॥८॥

तदनु जलद-जालै:- तदनन्तर मेघों के समूहों से
त्वत्-वपु:- आपके श्री अङ्गों की
तुल्य-भाभि:- आभा के समान
विकसत्-अमल- उठती हुई निर्मल
विद्युत्-पीतवास:- (पीत) विद्युत पीताम्बर (के समान)
विलासै: मनोहर
सकल-भुवन-भाजां समस्त भुवन वासियों को
हर्षदां वर्षवेलां आनन्द देने वाली वर्षा ऋतु
क्षितिधर-कुहरेषु पर्वत गुहाओं में
स्वैरवासी व्यनैषी: स्वच्छन्द रूप से व्यतीत की (आपने)

तदनन्तर आपके श्री अङ्गों की आभा के समान मेघ समूहों वाली, आपके पीताम्बर की कान्ति के समान पीत विद्युत वाली, समस्त भुवन वासियों को आनन्द देने वाली मनोहर वर्षा ऋतु आपने पर्वत गुहाओं में स्वेच्छा पूर्वक विचरण करते हुए व्यतीत की।

कुहरतलनिविष्टं त्वां गरिष्ठं गिरीन्द्र:
शिखिकुलनवकेकाकाकुभि: स्तोत्रकारी ।
स्फुटकुटजकदम्बस्तोमपुष्पाञ्जलिं च
प्रविदधदनुभेजे देव गोवर्धनोऽसौ ॥९॥

कुहरतल-निविष्टं (पर्वत) गुहाओं में निवास करते हुए
त्वां गरिष्ठं आपको गौरवशाली
गिरीन्द्र: गिरीन्द्र (गोवर्धन)
शिखि-कुल- मयूरों के समूहों की
नव-केका- नव कलरव
काकुभि: स्तोत्रकारी पुकारों से (मानो) स्तुति करता हुआ
स्फुट-कुटज-कदम्ब- मुकुलित कुटज और कदम्ब के
स्तोम-पुष्पाञ्जलिं च (पुष्पों के) समूहों से (मानो) पुष्पाञ्जलि से
प्रविदधत्-अनुभेजे व्यवधान करता था निरन्तर पूजा का
देव हे देव!
गोवर्धन:-असौ गोवर्धन (पर्वत) यह

हे देव! पर्वत गुहाओं में गौरवशाली आपके निवास के समय, वह गोवर्धन पर्वत स्वयंपर स्थित मयूर समूहों की नव कलरव ध्वनि से मानो आपकी स्तुति करता था औरस्वयं पर लगे हुए कुटज और कदम्ब वृक्षों के फूलों की अञ्जली से मानो निरन्तर आपकी पूजा का विधान करता था।

अथ शरदमुपेतां तां भवद्भक्तचेतो-
विमलसलिलपूरां मानयन् काननेषु ।
तृणममलवनान्ते चारु सञ्चारयन् गा:
पवनपुरपते त्वं देहि मे देहसौख्यम् ॥१०॥

अथ शरदम्-उपेतां तब शरद के आने पर
तां भवत्-भक्त-चेत:- वह आपके भक्तों के (निर्मल)चित्त (के समान)
विमल-सलिल-पूरां निर्मल जल से परिपूर्ण
मानयन् काननेषु (मानो) सम्मान देते हुए वन प्रान्तों में
तृणम्-अमल-वनान्ते घास सुन्दर वनों में
चारु सञ्चारयन् गा: हर्ष पूर्वक चराते थे गौओं को
पवनपुरपते हे पवनपुरपते!
त्वं देहि आप दीजिये
मे देह-सौख्यम् मुझे शारीरिक स्वास्थ्य

इसके बाद, आपके भक्तों के निर्मल चित्त के समान निर्मल जल से परिपूर्ण शरद ऋतु आ गई। सुन्दर घास से युक्त वनों में, वन प्रान्तों को मानो सम्मान देते हुए, आप आनन्द्पूर्वक गौएं चराते थे। हे पवनपुरपते! आप मुझे शारिरिक स्वास्थ्य प्रदान कीजिये।

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