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दशक ५७

रामसख: क्वापि दिने कामद भगवन् गतो भवान् विपिनम् ।
सूनुभिरपि गोपानां धेनुभिरभिसंवृतो लसद्वेष: ॥१॥

रामसख: बलराम के साथ
क्वापि दिने किसी एक दिन
कामद भगवन् कामनाओं के दाता भगवन!
गत: भवान् गये आप
विपिनम् वन को
सूनुभि:-अपि पुत्रों के साथ भी
गोपानाम् गोपों के
धेनुभि:-अभिसंवृत: गौओं से घिरे हुए
लसत्-वेष: सुसज्जित वेश में

कामनाओं के दाता हे भगवन! किसी एक दिन आप बलराम और गोप बालकों के साथ सुसज्जित वेश में वन गये।

सन्दर्शयन् बलाय स्वैरं वृन्दावनश्रियं विमलाम् ।
काण्डीरै: सह बालैर्भाण्डीरकमागमो वटं क्रीडन् ॥२॥

सन्दर्शयन् दिखाते हुए
बलाय स्वैरं बलराम को स्वच्छन्दता से
वृन्दावन-श्रियं वृन्दावन की शोभा
विमलाम् निर्मल
काण्डीरै: सह लकडी लिये हुए
बालै:- बालकों के साथ
भाण्डीरकम्- भाण्डीरक के
आगम: पास आये
वटं क्रीडन् पेड के खेलते हुए

बलराम को वृन्दावन की निर्मल शोभ भली भांति दिखाते हुए, बालकों के साथ स्वच्छन्दता से खेलते हुए, हाथ में लकडी लिये हुए आप भाण्डीरक तरु के समीप आए।

तावत्तावकनिधनस्पृहयालुर्गोपमूर्तिरदयालु: ।
दैत्य: प्रलम्बनामा प्रलम्बबाहुं भवन्तमापेदे ॥३॥

तावत्- तब
तावक-निधन- आपकी मृत्यु
स्पृहयालु:-गोपमूर्ति: चाहने वाला गोप के वेश में
अदयालु: दैत्य: निर्दयी दैत्य
प्रलम्ब-नामा प्रलम्ब नाम का
प्रलम्ब-बाहुं भवन्तम्- विशाल बाहुओं वाले आपके
आपेदे निकट आया

उस समय, गोप के वेष में प्रलम्ब नाम का निर्दयी दैत्य, विशाल बाहुओं वाले आपको मारने की इच्छा से आपके निकट आया।

जानन्नप्यविजानन्निव तेन समं निबद्धसौहार्द: ।
वटनिकटे पटुपशुपव्याबद्धं द्वन्द्वयुद्धमारब्धा: ॥४॥

जानन्-अपि जानते हुए भी
अविजानन्-इव अनजान के समान
तेन समं उसके साथ
निबद्ध-सौहार्द: करके मित्रता
वट-निकटे पेड के पास
पटु-पशुप- चतुर गोपालकों से
व्याबद्धं निश्चित करवाया
द्वन्द्व-युद्धम्- द्वन्द्व युद्ध
आरब्धा: (और) उसे आरम्भ करवाया

यह जानते हुए भी कि वह दैत्य है, आपने अनजान की भांति व्यवहार कर के उसके साथ मित्रता की। फिर वट वृक्ष के पास जा कर, द्वन्द्व युद्ध में चतुर गोपालकों के साथ निश्वय करके द्वन्द्व युद्ध प्रारम्भ करवाया।

गोपान् विभज्य तन्वन् सङ्घं बलभद्रकं भवत्कमपि ।
त्वद्बलभीरुं दैत्यं त्वद्बलगतमन्वमन्यथा भगवन् ॥५॥

गोपान् विभज्य गोपों का विभाजन करके
तन्वन् सङ्घं बना कर दल
बलभद्रकं बलराम का (दल)
भवत्कम्-अपि और आपका भी (दल)
त्वत्-बल-भीरुं आपके बल से भयभीत
दैत्यं दैत्य
त्वद्-बल-गतम्- आप ही के दल में आ गया
अन्वमन्यथा आपने स्वीकार कर लिया
भगवन् हे भगवन!

गोपबालकों को आपने दो दलों में विभजित कर दिया, एक दल बलराम का और एक आपका। दैत्य प्रलम्बासुर ने आपके बल से भयभीत हो कर आपके ही दल में आना चाहा। आपने उसे स्वीकार कर लिया।

कल्पितविजेतृवहने समरे परयूथगं स्वदयिततरम् ।
श्रीदामानमधत्था: पराजितो भक्तदासतां प्रथयन् ॥६॥

कल्पित- बनाए हुए (नियमों) के अनुसार
विजेतृ-वहने विजयी को उठा कर ले जाने में
समरे परयूथगं युद्ध में, अन्य दल के
स्वदयिततरम् आपके प्रियतम (मित्र)
श्रीदामानम्- श्रीदामा को
अधत्था: पराजित: उठाया पराजित हुए आपने
भक्त-दासतां भक्तों (के प्रति) दासता को
प्रथयन् प्रदर्शित करते हुए

द्वन्द्व युद्ध के परिकल्पित नियमों के अनुसार पराजित दल को विजयी दल के द्वारा उठा कर ले जाना निर्धारित हुआ। तदनुसार आपने पराजित हुए अपने प्रिय मित्र श्रीदामा का वहन किया, मानों भक्तों के प्रति अपनी दासता का प्रदर्शन करते हुए।

एवं बहुषु विभूमन् बालेषु वहत्सु वाह्यमानेषु ।
रामविजित: प्रलम्बो जहार तं दूरतो भवद्भीत्या ॥७॥

एवं बहुषु इस प्रकार
विभूमन् हे विभूमन!
बालेषु वहत्सु बालकों के परस्पर उठाते हुए
वाह्यमानेषु (और) उठाये जाते हुए
राम-विजित: बलराम विजित को
प्रलम्ब: जहार तं प्रलम्ब ले गया उसको
दूरत: भवत्-भीत्या दूर आपके डर से

हे विभूमन! बालक परस्पर उठा रहे थे और उठाये जा रहे थे। पराजित बलराम को उठा कर प्रलम्बासुर आपके भय से दूर ले गया।

त्वद्दूरं गमयन्तं तं दृष्ट्वा हलिनि विहितगरिमभरे ।
दैत्य: स्वरूपमागाद्यद्रूपात् स हि बलोऽपि चकितोऽभूत् ॥८॥

त्वत्-दूरं गमयन्तम् आपसे दूर जाते हुए
तं दृष्ट्वा हलिनि उसको देख कर
विहित-गरिम-भरे बढा लेने पर वजन (अपना)
दैत्य: स्वरूपम्- दैत्य अपने स्वरूप में
आगात्-यत्-रूपात् आ गया जिस रूप से
स हि बल:-अपि वह बलराम भी
चकित:-अभूत् चकित हो गया

जब बलराम ने देखा कि प्रलम्बासुर उन्हें आपसे दूर ले जा रहा है तब उन्होंने अपना वजन बढा दिया। इससे वह असुर भी अपने स्वरूप में आ गया। उसके उस स्वरूप को देख कर बलराम भी चकित रह गये।

उच्चतया दैत्यतनोस्त्वन्मुखमालोक्य दूरतो राम: ।
विगतभयो दृढमुष्ट्या भृशदुष्टं सपदि पिष्टवानेनम् ॥९॥

उच्चतया दैत्य-तनो:- असुर के ऊंचे शरीर के कारण
त्वत्-मुखम्- आपके मुख को
आलोक्य देख कर
दूरत: राम: दूर से ही बलराम ने
विगत-भय: भयरहित हो कर
दृढ-मुष्ट्या दृढ मुष्टि (प्रहार से)
भृश-दुष्टम् सपदि (उस) अत्यन्त क्रूर को शीघ्र ही
पिष्ट्वान् एनम् पीस डाला उसको

असुर के ऊंची देह पर स्थित बलराम ने आपके मुख को देखा। तुरन्त ही भय रहित हो कर दृढ मुष्टि प्रहार से उन्होंने उस अत्यन्त क्रूर दैत्य को शीघ्र ही पीस डाला।

हत्वा दानववीरं प्राप्तं बलमालिलिङ्गिथ प्रेम्णा ।
तावन्मिलतोर्युवयो: शिरसि कृता पुष्पवृष्टिरमरगणै: ॥१०॥

हत्वा दानव-वीरं मार कर दानव वीर को
प्राप्तं बलम्- आये हुए बलराम का
आलिलिङ्गिथ आलिङ्गन किया
प्रेम्णा तावत- प्रेम से जब
मिलतो:-युवयो: मिलते हुए आप दोनों के
शिरसि कृता शिरों पर की
पुष्पवृष्टि:- पुष्प वृष्टि
अमर-गणै: देव गण ने

जब बलराम दानववीर को मार कर आये तब आपने उनका आलिङ्गन किया। आप दोनों के उस मिलन के समय देवताओं ने आपके शिरों पर पुष्प वृष्टि की।

आलम्बो भुवनानां प्रालम्बं निधनमेवमारचयन् ।
कालं विहाय सद्यो लोलम्बरुचे हरे हरे: क्लेशान् ॥११॥

आलम्ब: भुवनानां आधार भूत भुवनों के
प्रालम्बं निधनम्- प्रलम्बासुर की मृत्यु
एवम्-आरचयन् इस प्रकार रचने वाले
कालं विहाय समय छोड कर
सद्य: शीघ्र
लोलम्बरुचे भंवरे के समान सुन्दर
हरे हे हरे!
हरे: हर लें
क्लेशान् कष्टों को

भुवन त्रय के आधार भूत आपने इस विधि से प्रलम्बासुर की मृत्यु का विधान रचा। विलम्ब न कर के, हे भंवरे के समान सुन्दर हरे! शीघ्र ही मेरे कष्टों को हर लीजिये।

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