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दशक ४९
भवत्प्रभावाविदुरा हि गोपास्तरुप्रपातादिकमत्र गोष्ठे ।
अहेतुमुत्पातगणं विशङ्क्य प्रयातुमन्यत्र मनो वितेनु: ॥१॥
| भवत्-प्रभाव- |
आपके प्रभाव को |
| अविदुरा: हि गोपा:- |
नहीं जानने से ही गोप गण |
| तरु-प्रपात-आदिकम्- |
पेडों के गिरने आदि को |
| अत्र गोष्ठे |
यहां व्रज में |
| अहेतुम्-उत्पात-गणम् |
निरर्थक बहुत से उत्पातों से |
| विशङ्क्य |
शङ्कित हो कर |
| प्रयातुम्-अन्यत्र |
जाने के लिये दूसरी जगह |
| मन: वितेनु: |
मन को तैयार करने लगे |
गोप गण आपके प्रभाव को नहीं जानते थे। व्रज में पेडों के गिरने आदि जैसे नाना प्रकार के होने वाले अकारण उत्पातों से शङ्कित हो कर वे व्रज को छोड कर दूसरी जगह जाने का मन बनाने लगे।
तत्रोपनन्दाभिधगोपवर्यो जगौ भवत्प्रेरणयैव नूनम् ।
इत: प्रतीच्यां विपिनं मनोज्ञं वृन्दावनं नाम विराजतीति ॥२॥
| तत्र-उपनन्द-अभिध- |
वहां उपनन्द नाम के |
| गोपवर्य: जगौ |
श्रेष्ठ गोप ने कहा |
| भवत्-प्रेरणया-एव |
आप की प्रेरणा से ही |
| नूनम् |
निश्चय |
| इत: प्रतीच्याम् |
यहां से पश्चिम की ओर |
| विपिनं मनोज्ञं |
वन (है) मनोहर |
| वृन्दावनं नाम |
वृन्दावन नाम से |
| विराजति-इति |
जाना जाता है, इस प्रकार |
निश्चय ही आपकी ही की प्रेरणा से, वहां पर उपनन्द नाम के वरिष्ठ गोप ने गोष्ठी में कहा कि गोकुल के पश्चिम की ओर एक मनोहर वन प्रदेश है जो वृन्दावन के नाम से जाना जाता है।
बृहद्वनं तत् खलु नन्दमुख्या विधाय गौष्ठीनमथ क्षणेन ।
त्वदन्वितत्वज्जननीनिविष्टगरिष्ठयानानुगता विचेलु: ॥३॥
| बृहद्वनम् तत् खलु |
उस वृहद्वन को निश्चय करके |
| नन्द-मुख्या विधाय |
नन्द आदि मुख्य (गोपों) ने खाली करके |
| गौष्ठीनम्-अथ |
गौशाला को फिर |
| क्षणेन |
तुरन्त ही |
| त्वत्-अन्वित- |
आपके सहित |
| त्वत्-जननी-निविष्ट- |
आपकी माता को बैठये हुए |
| गरिष्ठ-यान-अनुगता |
विशाल गाडी के पीछे चलते हुए |
| विचेलु: |
निकल पडे |
नन्द आदि मुख्य गोपों ने तब निर्णय ले कर उस वृहद्वन की गौशाला को खाली कर दिया। इसके बाद शीघ्र ही आप सहित आपकी माता को विशाल गाडी में बैठा कर स्वयं उसके पीछे पीछे चलते हुए निकल पडे।
अनोमनोज्ञध्वनिधेनुपालीखुरप्रणादान्तरतो वधूभि: ।
भवद्विनोदालपिताक्षराणि प्रपीय नाज्ञायत मार्गदैर्घ्यम् ॥४॥
| अन:-मनोज्ञ-ध्वनि- |
गाडी की सुन्दर ध्वनि |
| धेनु-पाली- |
गौ समूह के |
| खुर-प्रणाद-अन्तरत: |
खुरों का नाद (उसके) बीच बीच में |
| वधूभि: |
युवतियों के द्वारा |
| भवत्-विनोद- |
आपके हास्य पूर्ण |
| आलपित-अक्षराणि |
कहे गये अक्षरों को |
| प्रपीय न-अज्ञायत |
पी कर (सुन कर) नहीं बोध हुआ |
| मार्ग-दैर्घ्यम् |
मार्ग की दूरी का |
गाडी की सुन्दर ध्वनि, गौ समूह के खुरों का नाद और बीच बीच में आपके द्वारा कहे गये हास्यपूर्ण अक्षर, इन सब का सम्मिलित रूप से पान करते हुए, अथवा इन्हें सुनते हुए गोप युवतियों को मार्ग की दूरी का बोध ही नहीं हुआ।
निरीक्ष्य वृन्दावनमीश नन्दत्प्रसूनकुन्दप्रमुखद्रुमौघम् ।
अमोदथा: शाद्वलसान्द्रलक्ष्म्या हरिन्मणीकुट्टिमपुष्टशोभम् ॥५॥
| निरीक्ष्य वृन्दावनम्- |
देख कर वृन्दावन को |
| ईश |
हे ईश्वर! |
| नन्दत्-प्रसून- |
खिलते हुए फूलों वाले |
| कुन्द-प्रमुख-द्रुम-औघम् |
कुन्द आदि प्रमुख पेडों के समूह वाले |
| अमोदथा: |
प्रसन्न हो गये |
| शाद्वल-सान्द्र-लक्ष्म्या |
हरी घनी घास से |
| हरिन्-मणी-कुट्टिम- |
हरे मणि (पन्ने) से जडे हुए के समान |
| पुष्ट-शोभम् |
बढा रहा था शोभा को |
हे ईश्वर! खिले हुए फूलों वाले, कुन्द आदि सभी प्रमुख पेडों के समूहों वाले वृन्दावन को देख कर आप प्रसन्न हो गये। घनी हरी घास, जडे हुए हरे पन्ने की मणि के समान वहां की शोभा बढा रही थी।
नवाकनिर्व्यूढनिवासभेदेष्वशेषगोपेषु सुखासितेषु ।
वनश्रियं गोपकिशोरपालीविमिश्रित: पर्यगलोकथास्त्वम् ॥६॥
| नवाक-निर्व्यूढ- |
अर्ध चन्द्र के समान बनाये गये |
| निवास-भेदेषु- |
विभिन्न घरों में |
| अशेष-गोपेषु |
सभी गोप (जब) |
| सुख-आसितेषु |
सुख से टिक गये |
| वनश्रियं |
वन की सुन्दरता को |
| गोप-किशोर-पाली- |
युवक गोप जनों की टोली के साथ |
| विमिश्रित: |
मिल कर |
| पर्यक्-अलोकथा:-त्वम् |
घूम घूम कर देखने लगे आप |
अर्ध चन्द्र के आकार में बनाए हुए विभिन्न घरों में सभी गोप जन सुख पूर्वक टिक गये। तब युवक गोप जनों की टोली के संग घूम घूम कर आप वन की सुन्दरता का मुग्ध भाव से परिदर्शन करने लगे।
अरालमार्गागतनिर्मलापां मरालकूजाकृतनर्मलापाम् ।
निरन्तरस्मेरसरोजवक्त्रां कलिन्दकन्यां समलोकयस्त्वम् ॥७॥
| अराल-मार्ग- |
टेढे मेढे मार्गों से |
| आगत्-निर्मल-आपां |
प्रवाहित होते हुए निर्मल जल वाली |
| मराल-कूज- |
हंसो की कूंजन से |
| आकृत-नर्म-लापाम् |
मुखरित मधुर शब्द वाली |
| निरन्तर-स्मेर- |
सदैव मुस्कुराते हुए |
| सरोज-वक्त्राम् |
कमल मुख वाली |
| कलिन्द-कन्याम् |
कालिन्द की कन्या (यमुना नदी) को |
| समलोकय:-त्वम् |
देखा आपने |
अपने टेढे मेढे मार्गों से प्रवाहित होती हुई निर्मल जल वाली कलिन्द पुत्री कालिन्दी (यमुना) को आपने देखा। हंसों के मधुर कलरव से उसका कल कल करता जल मुखरित हो रहा था और खिलते हुए कमलों से भरा हुआ उसका मुख कमल सदैव मुस्कुरा रहा था।
मयूरकेकाशतलोभनीयं मयूखमालाशबलं मणीनाम् ।
विरिञ्चलोकस्पृशमुच्चशृङ्गैर्गिरिं च गोवर्धनमैक्षथास्त्वम् ॥८॥
| मयूर-केका-शत- |
मयूरों के शत शत कूकने से |
| लोभनीयं |
मनोहर |
| मयूख-माला-शबलम् |
किरणो की मालओं के रंगीन जाल से |
| मणीनाम् |
(आच्छादित) मणियों के |
| विरिञ्च-लोक- |
ब्रह्मा के निवास को |
| स्पृशम्-उच्च-शृङ्गै: |
छूता हुआ सा ऊंचे शिखरों से |
| गिरिम् च गोवर्धनम्- |
और गोवर्धन पर्वत को |
| ऐक्षथा:-त्वम् |
देखा आपने |
और आपने गोवर्धन पर्वत को देखा जो मयूरों की शत शत कूक से मनोहारी था। पर्वत चारों ओर विस्तीर्ण रंग बिरंगी मणियों की रंगीन किरणों से आलोकित था। अपने ऊंचे शिखरों से वह मानो ब्रह्म लोक को छूने की स्पर्धा कर रहा था।
समं ततो गोपकुमारकैस्त्वं समन्ततो यत्र वनान्तमागा: ।
ततस्ततस्तां कुटिलामपश्य: कलिन्दजां रागवतीमिवैकाम् ॥९॥
| समं तत: |
साथ में तब |
| गोपकुमारकै:- |
गोपकुमारों के |
| त्वं समन्तत: यत्र |
आप सब ओर जहां |
| वनान्तम्-आगा: |
वन के अन्त तक गये |
| तत:-तत:- |
वहां वहां |
| ताम् कुटिलाम्- |
उस टेढी मेढी |
| अपश्य: कलिन्दजाम् |
को देखा कालिन्दी (को) |
| रागवतीम्-इव-ऐकाम् |
अनुरागिनी मानो एकमात्र |
गोपकुमारों के साथ आप वन के अन्त तक जहां जहां भी गये, आपने एकमात्र आपकी अनुरागिनी उस टेढी मेढी कालिन्दी (यमुना) को ही देखा।
तथाविधेऽस्मिन् विपिने पशव्ये समुत्सुको वत्सगणप्रचारे ।
चरन् सरामोऽथ कुमारकैस्त्वं समीरगेहाधिप पाहि रोगात् ॥१०॥
| तथा-विधे- |
इस प्रकार के |
| अस्मिन् विपिने |
इस वन में |
| पशव्ये |
पशुओं के लिये उपयुक्त |
| समुत्सुक: |
उत्साहित |
| वत्सगण-प्रचारे |
गोवत्सों को चराने के लिये |
| चरन्-सराम:-अथ |
घूमते हुए, बलराम के साथ,फिर |
| कुमारकै:-त्वं |
गोपकुमारों के साथ आप |
| समीरगेहाधिप |
हे समीरगेहाधिप! |
| पाहि रोगात् |
रक्षा करें रोगों से |
पशुओं के लिये उपयुक्त इस प्रकार के वन में बलराम और गोपकुमारों के साथ विचरते हुए, गोवत्सों की चर्या करने में उत्साहित आप, हे समीरगेहाधिप! रोगों से मेरी रक्षा करें।
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