Shriman Narayaneeyam

दशक 35 | प्रारंभ | दशक 37

English


दशक ३६

अत्रे: पुत्रतया पुरा त्वमनसूयायां हि दत्ताभिधो
जात: शिष्यनिबन्धतन्द्रितमना: स्वस्थश्चरन् कान्तया ।
दृष्टो भक्ततमेन हेहयमहीपालेन तस्मै वरा-
नष्टैश्वर्यमुखान् प्रदाय ददिथ स्वेनैव चान्ते वधम् ॥१॥

अत्रे: पुत्रतया अत्रि मुनि के पुत्र रूप में
पुरा त्वम्- पहले आप
अनसूयायां हि अनसूया से ही
दत्त-अभिध: जात: दत्तात्रेय नाम से पैदा हुए
शिष्य-निबन्ध अपने शिष्यों के आग्रहों से
तन्द्रित-मना: तन्द्रित चित्त हुए
स्वस्थ:-चरन् कान्तया आत्मनिष्ठ हो कर विचरते हुए पत्नी के साथ
दृष्ट: भक्ततमेन दिखाए पडे भक्त उत्तम
हेहय-महीपालेन तस्मै हेहय के राजा (कार्तवीर्यार्जुन) को, उनको
वरान्-अष्ट-ऐश्वर्य-मुखान् वर आठ ऐश्वर्य पूर्ण
प्रदाय ददिथ दे कर (फिर) दिया
स्वेन-एव स्वयं के द्वारा ही
च-अन्ते वधम् और अन्त में वध

पूर्व काल में आप अत्रि मुनि के पुत्र दत्तात्रेय के रूप में अनसूया के गर्भ से पैदा हुए। अपने शिष्यों के आग्रहों से व्यथित और तन्द्रित चित्त वाले आप अपनी पत्नी के साथ स्वस्थ चित्त हो कर आत्मनिष्ठ भाव से विचरने लगे। उस समय हेहय के राजा भक्तोत्तम कार्तवीर्यार्जुन ने आपको देखा। उनको आपने ऐश्वर्य युक्त आठ वर प्रदान किये और अन्त में स्वयं के द्वारा वध का भी विधान किया।

सत्यं कर्तुमथार्जुनस्य च वरं तच्छक्तिमात्रानतं
ब्रह्मद्वेषि तदाखिलं नृपकुलं हन्तुं च भूमेर्भरम् ।
सञ्जातो जमदग्नितो भृगुकुले त्वं रेणुकायां हरे
रामो नाम तदात्मजेष्ववरज: पित्रोरधा: सम्मदम् ॥२॥

सत्यं कर्तुम्- सत्य करने के लिये
अथ-अर्जुनस्य च वरं तब और कार्तवीर्यार्जुन के वरों को
तत्-शक्ति-मात्रा-नतं (जो) उनकी शक्ति की मात्रा से दबे हुए
ब्रह्मद्वेषि तत्-अखिलं ब्रह्मद्वेषी उस समस्त
नृपकुलं हन्तुं नृपकुल को मारने के लिये
च भूमे:-भरम् और भूमि के भार (स्वरूपों) को
सञ्जात: जमदग्नित: पैदा हुए जमदग्नि से
भृगुकुले भृगुकुल में
त्वं रेणुकायां आप रेणुका में
हरे हे हरे!
राम: नाम राम नाम से
तत्-आत्मजेषु उनके पुत्रों में
अवरज: सब से छोटे
पित्रो:-अधा: सम्मदम् माता पिता को दिया आनन्द

कार्तवीर्यार्जुन की शक्ति से किञ्चित दबे हुए तथा ब्रह्मद्रोही एवं पृथ्वी पर भार स्वरूप उस समस्त नृपकुल को मारने के लिये और अर्जुन को प्रदत्त वरों को पूर्ण करने के लिये आपने भृगुकुल में रेणुका के गर्भ से जमदग्नि के पुत्र राम के रूप में जन्म लिया। हे हरे! उनके पुत्रों में आप सब से छोटे थे और माता पिता को आनन्द देने वाले थे।

लब्धाम्नायगणश्चतुर्दशवया गन्धर्वराजे मना-
गासक्तां किल मातरं प्रति पितु: क्रोधाकुलस्याज्ञया ।
ताताज्ञातिगसोदरै: सममिमां छित्वाऽथ शान्तात् पितु-
स्तेषां जीवनयोगमापिथ वरं माता च तेऽदाद्वरान् ॥३॥

लब्ध-आम्नायगण:- प्राप्त करके वेदों (का ज्ञान) समस्त
चतुर्दश-वया चौदह (वर्ष की ) आयु में
गन्धर्वराजे गन्धर्व के राजा में
मनाक्-आसक्तां किल किञ्चित आसक्त हुई
मातरं प्रति माता के प्रति
पितु: क्रोध-आकुलस्य-आज्ञया पिता की, क्रोध से पीडित की आज्ञा से
तात-आज्ञातिग-सोदरै: पिता की आज्ञा का उल्लङ्घन किया भाइयों ने
समम्-इमां छित्वा- साथ में इनको (माता) काट कर
अथ शान्तात् पितु: तब शान्त हुए पिता से
तेषां जीवन योगम्-आपिथ वरं उनके जीवन सम्बन्धी मांगा वर
माता च और माता ने भी
ते-अदात्-वरान् आपको दिया वर

आपने चौदह वर्ष की आयु में ही समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। माता की गन्धर्व के राजा के प्रति किञ्चित आसक्त के कारण क्रोध से पीडित पिता ने उनका वध करने की आज्ञा दी किन्तु आपके भ्राताओं ने इस आज्ञा का उल्लंघन कर दिया। तब आपने अपने भ्राताओं के संग माता का भी सर काट दिया। इससे शान्त हुए पिता से तब आपने सबके पुनर्जीवन का वरदान मांगा। माता ने भी आपको वर दिया।

पित्रा मातृमुदे स्तवाहृतवियद्धेनोर्निजादाश्रमात्
प्रस्थायाथ भृगोर्गिरा हिमगिरावाराध्य गौरीपतिम् ।
लब्ध्वा तत्परशुं तदुक्तदनुजच्छेदी महास्त्रादिकं
प्राप्तो मित्रमथाकृतव्रणमुनिं प्राप्यागम: स्वाश्रमम् ॥४॥

पित्रा मातृमुदे पिता के द्वारा माता की प्रसन्नता के लिये
स्तव-आहृत- स्तुति से हरण की गई
वियत्-धेनो:- (दिव्य) स्वर्ग की धेनु (सुरभि)
निजात्-आश्रमात् अपने आश्रम से
प्रस्थाय-अथ प्रस्थान कर के तब
भृगो:-गिरा भृगु मुनि के आदेश से
हिमगिरौ-आराध्य गौरीपतिम् हिमालय पर जा कर शंकर जी की आराधना कर के
लब्ध्वा-तत्-परशुं प्राप्त करके वह परशु
तत्-उक्त-दनुज-छेदी उनके द्वारा बताये गये असुरों को मार कर
महा-अस्त्रादिकं प्राप्त: महान अस्त्र आदि को प्राप्त कर के
मित्रम्-अथ- मित्र से तब
अकृत्-व्रण-मुनिं अकृत्व्रण मुनि से
प्राप्य-अगम: स्व-आश्रमम् मिल कर लौट आये अपने आश्रम को

माता की प्रसन्नता के लिये पिता ने स्तुति के द्वारा हरण की हुई दिव्य धेनु सुरभि का हरण करके अपने आश्रम मे रखा था। भृगु मुनि के आदेश से उस आश्रम से प्रस्थान कर के आपने हिमालय जा कर गौरीपति शंकर जी की आराधना की। शंकर जी से परशु और अनेक महान अस्त्र आदि प्राप्त कर के आपने उनके बताये हुए दैत्यों को मारा। तत्पश्चात अपने मित्र अकृत्व्रण से मिल कर आप अपने आश्रम को लौट आये।

आखेटोपगतोऽर्जुन: सुरगवीसम्प्राप्तसम्पद्गणै-
स्त्वत्पित्रा परिपूजित: पुरगतो दुर्मन्त्रिवाचा पुन: ।
गां क्रेतुं सचिवं न्ययुङ्क्त कुधिया तेनापि रुन्धन्मुनि-
प्राणक्षेपसरोषगोहतचमूचक्रेण वत्सो हृत: ॥५॥

आखेट-उपगत:-अर्जुन: मृगया के लिये गये हुए अर्जुन का
सुरगवी-सम्प्राप्त-सम्पद्गणै:- सुर धेनु (सुरभि) से पाये गये सम्पदाओं से
त्वत्-पित्रा परिपूजित: आपके पिता के द्वारा सत्कार किया गया
पुर-गत: दुर्मन्त्रि-वाचा नगर को लौट कर दुर्मन्त्री के परामर्श से
पुन: गां क्रेतुं फिर गाय को खरीदने के लिये
सचिवं न्ययुङ्क्त उस मन्त्री को नियुक्त किया
कुधिया तेन- दुर्बुद्धि उसके द्वारा
अपि रुन्धन्- रोकते हुए को भी
मुनि-प्राण-क्षेप मुनि को प्राणो से मार दिया
सरोष-गो- क्रोध के सहित उस गाय ने
हत-चमू-चक्रेण मार दिया प्रकट की हुई सेना के द्वारा
वत्स: हृत: किन्तु (वह मन्त्री) बछडे को चुराले गया

मृगया के लिये गये हुए राजा कार्तवीर्यार्जुन का आपके पिताने सुरभि धेनु से प्राप्त सम्पदाओं से आतिथ्य सत्कार किया। नगर लौटने पर दुर्मन्त्री के परामर्श से उसने गाय को खरीदने के लिये उसी मन्त्री को नियुक्त किया। उस दुर्बुद्धि मन्त्री ने बाधा डालते हुए मुनि को प्राणों से मार डाला। इस पर सुरभि धेनु ने क्रोध से स्व निर्मित सेना के द्वारा उसकी सारी सेना को मार डाला, किन्तु मन्त्री बछडे को चुरा ले गया।

शुक्रोज्जीविततातवाक्यचलितक्रोधोऽथ सख्या समं
बिभ्रद्ध्यातमहोदरोपनिहितं चापं कुठारं शरान् ।
आरूढ: सहवाहयन्तृकरथं माहिष्मतीमाविशन्
वाग्भिर्वत्समदाशुषि क्षितिपतौ सम्प्रास्तुथा: सङ्गरम् ॥६॥

शुक्र-उज्जीवित शुक्र के द्वारा पुनर्जीवित
तात-वाक्य पिता के (सारे वृतान्त) कहने से
चलित-क्रोध:-अथ बढे हुए क्रोध वाले (आपने) तब
सख्या समं विभ्रत् (अपने) सखा (अकृत्व्रण) के साथ तेजस्वी
ध्यात-महोदर-उपनिहितं ध्यान किया महोदर का, (उनसे) पा कर
चापं कुठारं शरान् धनुष परशु और तीर
आरूढ: सह-वाह-यन्तृक रथं चढ कर घोडे और वाहक मय रथ पर
माहिष्मतीम्-आविशन् माहिष्मती में जा कर
वाग्भि:-वत्सम्- वचनों से बछडे को
अदाशुषि क्षितिपतौ नहीं देना चाहा राजा ने (जब)
सम्प्रास्तुथा: सङरम् आरम्भ कर दिया संग्राम

शुक्राचार्य के द्वारा पुनर्जीवित हुए पिता के द्वारा आपने पूरा वृत्तान्त सुना और आपका क्रोध प्रज्ज्वलित हो उठा। अपने सखा अकृत्व्रण के साथ आपने महोदर का ध्यान किया और उनसे धनुष, परशु और बाण प्राप्त किये। घोडों और वाहक सहित रथ पर चढ कर माहिष्मती में प्रवेश किया। मौखिक रूप से मांगे जाने पर जब राजा बछडे को लौटाने तैयार नहीं हुए तब आपने युद्ध छेड दिया।

पुत्राणामयुतेन सप्तदशभिश्चाक्षौहिणीभिर्महा-
सेनानीभिरनेकमित्रनिवहैर्व्याजृम्भितायोधन: ।
सद्यस्त्वत्ककुठारबाणविदलन्निश्शेषसैन्योत्करो
भीतिप्रद्रुतनष्टशिष्टतनयस्त्वामापतत् हेहय: ॥७॥

पुत्राणाम्-अयुतेन पुत्र दस हजार के साथ
सप्तदशभि:-च-अक्षौहिणीभि:- और सत्रह अक्षौहिणी (सेना) के साथ
महा-सेनानीभि:- महान सेनानियों के साथ
अनेक-मित्र-निवहै:- अनेक मित्रों के समूह के साथ
व्याजृम्भित-आयोधन: दर्शाया युद्ध में
सद्य:-त्वत्क- शीघ्र ही आपके
कुठार-बाण-विदलन्- परशु बाण आदि ने नष्ट कर दिया
निश्शेष-सैन्य-उत्कर: समस्त सेना के दल को
भीति-प्रद्रुत- डर से भाग गये
नष्ट-शिष्ट-तनय: नष्ट होने से बचे हुए पुत्र
त्वाम्-आपतत् (तब) आप पर आक्रमण किया
हेहय: हेहय (नरेश कार्तवीर्यार्जुन ने)

कार्तवीर्यार्जुन ने अपने दस हजार पुत्रों का, सत्रह अक्षौहिणी सेना का दल कई महान सेनापतियों और मित्रों के झुंड का बल युद्ध में दर्शाया। किन्तु वे सब शीघ्र ही आपके परशु और बाणों से नष्ट हो गये। बचे हुए सैनिक और पुत्र डर से भाग गये। तब हेहय नरेश कार्तवीर्यार्जुन ने स्वयं आप पर आक्रमण किया।

लीलावारितनर्मदाजलवलल्लङ्केशगर्वापह-
श्रीमद्बाहुसहस्रमुक्तबहुशस्त्रास्त्रं निरुन्धन्नमुम् ।
चक्रे त्वय्यथ वैष्णवेऽपि विफले बुद्ध्वा हरिं त्वां मुदा
ध्यायन्तं छितसर्वदोषमवधी: सोऽगात् परं ते पदम् ॥८॥

लीला-वारित क्रीडावश रोके गये
नर्मदा जल नर्मदा के जल को
वलत् (उसके कारण) बहे जाते हुए
लङ्केश-गर्व-अपह- रावण के गर्व का नाश करने वाले
श्रीमत्- हे भगवन!
बाहु-सहस्र-मुक्त हजारों बाहुओं से छोडे गये
बहु-शस्त्र-अस्त्रं अनेक अस्त्र और शस्त्र को
निरुन्धन्-अमुम् रोकते हुए उनको
चक्रे त्वयि-अथ चक्र को तब आपके ऊपर (छोडे हुए को)
वैष्णवे-अपि विफले वैष्णव (चक्र) भे (जब) निष्फल हो गया
बुद्ध्वा हरिं त्वाम् जान कर आपको हरि
मुदा ध्यायन्तं सहर्ष ध्यान करते हुए को
छित-सर्व-दोषम्- छिन्न कर के सब दोषों (पापों) को
अवधी: स:-अगात् मार दिया (आपने), वह चला गया
परं ते पदम् आपके परम पद (वैकुण्ठ ) को

हे भगवन! कार्तवीर्यार्जुन ने क्रीडावश नर्मदा के जल को रोक दिया था और धारा में बहते हुए रावण का गर्व नष्ट किया था। उसने अपने सहस्रों हाथों से आप के ऊपर नाना प्रकार के अस्त्र और शस्त्र छोडे, लेकिन आपने सभी को रोक दिया। जब उसके द्वारा छोडा हुआ वैष्णव चक्र भी निष्फल हो गया तब उसने अपनी बुद्धि से आपको हरि जान कर, सहर्ष आपका ध्यान किया। इस पर आपने उसके पापों का छेदन कर के उसे मार कर अपने परम धाम वैकुण्ठ भेज दिया।

भूयोऽमर्षितहेहयात्मजगणैस्ताते हते रेणुका-
माघ्नानां हृदयं निरीक्ष्य बहुशो घोरां प्रतिज्ञां वहन् ।
ध्यानानीतरथायुधस्त्वमकृथा विप्रद्रुह: क्षत्रियान्
दिक्चक्रेषु कुठारयन् विशिखयन् नि:क्षत्रियां मेदिनीम् ॥९॥

भूय:-अमर्षित- तदनन्तर अत्यधिक क्रोधित
हेहय-आत्मज-गणै:- हेहय के पुत्रों के द्वारा
ताते हते (आपके) पिता (जमदग्नि) के मारे जाने पर
रेणुकाम्-आघ्नानां हृदयं रेणुका के मारते हुए छाती को
निरीक्ष्य बहुश: देख कर बहुत बार
घोरां प्रतिज्ञां वहन् घोर प्रतिज्ञा को ले कर
ध्यान-आनीत- ध्यान के द्वारा प्राप्त किये गये
रथ-आयुध:-त्वम्-अकृथा रथ और अयुधों के, आपने बना लिया
विप्र-द्रुह: क्षत्रियान् विप्रों के द्रोहियों क्षत्रियों को (शत्रु)
दिक्-चक्रेषु कुठारयन् चारों दिशाओं में परशु से घात करते हुए
विशिखयन् नि:क्षत्रियाम् कर डाला क्षत्रिय रहित
मेदिनीम् पृथ्वी को

तदनन्तर हेहय के अत्यन्त क्रोधित हुए पुत्रों ने आपके पिता जमदग्नि को मार दिया। आपकी माता रेणुका को बार बार छाती पीट कर रोते हुए आपने देखा और एक घोर प्रतिज्ञा कर ली। ध्यान के द्वारा रथ और आयुधों को प्राप्त कर के विप्रों के द्रोही क्षत्रियों को शत्रु मान कर चारों दिशाओं में परशु के घात से क्षत्रियों का संहार कर के पृथ्वी को क्षत्रिय रहित कर दिया।

तातोज्जीवनकृन्नृपालककुलं त्रिस्सप्तकृत्वो जयन्
सन्तर्प्याथ समन्तपञ्चकमहारक्तहृदौघे पितृन्
यज्ञे क्ष्मामपि काश्यपादिषु दिशन् साल्वेन युध्यन् पुन:
कृष्णोऽमुं निहनिष्यतीति शमितो युद्धात् कुमारैर्भवान् ॥१०॥

तात-उज्जीवनकृत्- पिता को पुनर्जीवित कर के
नृपालक-कुलं राजाओं के कुलों को
त्रि:-सप्त-कृत्व: जयन् तीन सात बार (२१) करके विजय
सन्तर्प्य-अथ तर्पण करके तब
समन्त-पञ्चक-महारक्त-हृदौघे समन्त पञ्चक नामक रक्त के महान सरोवर में
पितृन् यज्ञे पितरों को यज्ञ में
क्ष्माम्-अपि काश्यप-आदिषु पृथ्वी भी कश्यप आदि
दिशन् साल्वेन युध्यन् पुन: देकर साल्व के साथ युद्ध करते हुए पुन:
कृष्ण:-अमुम्-निहनिष्यति- कृष्ण इसको मारेंगे'
इति शमित: युद्धात् इस प्रकार रोके गये युद्ध से
कुमारै: भवान् सनत कुमारों के द्वारा आप

अपने पिता जमदग्नि को पुनर्जीवित कर के, क्षत्रियों के कुल को २१ बार परास्त किया। रक्त से पूर्ण विशाल सरोवर समन्त पञ्चक में पितरों का तर्पण किया और फिर यज्ञ मे कश्यप आदि ऋषियों को पृथ्वी दान में देकर पुन: साल्व के साथ युद्ध करते हुए सनत कुमारों के द्वारा 'इसको कृष्ण मारेंगे' कहे जाने पर रोक दिये गये।

न्यस्यास्त्राणि महेन्द्रभूभृति तपस्तन्वन् पुनर्मज्जितां
गोकर्णावधि सागरेण धरणीं दृष्ट्वार्थितस्तापसै: ।
ध्यातेष्वासधृतानलास्त्रचकितं सिन्धुं स्रुवक्षेपणा-
दुत्सार्योद्धृतकेरलो भृगुपते वातेश संरक्ष माम् ॥११॥

न्यस्य-अस्त्राणि परित्याग कर के अस्त्रों का
महेन्द्र-भूभृति महेन्द्र पर्वत पर
तप:-तन्वन् तपस्या में प्रवृत हो गये
पुन:-मज्जितां फिर डूबी हुई
गोकर्ण-अवधि गोकर्ण पर्यन्त
सागरेण धरणीं दृष्ट्वा- सागर में धरती को देख कर
अर्थित:-तापसै: ध्यात- प्रार्थना किये जाने पर तपस्वियों के द्वारा,ध्यान से
इष्वास-धृत-अनल-अस्त्र- (प्राप्त) धनुष पर चढा कर आग्नेय अस्त्र
चकितं सिन्धुम् चकित सिन्धु को
स्रुव-क्षेपणात्- स्रुव के फेंकने से
उत्सार्य-उद्धृत-केरल: निकाल कर उठा लिया केरल को
भृगुपते वातेश हे भृगुपति वातेश!
संरक्ष माम् सुरक्षा करें मेरी

अस्त्रों का परित्याग कर के आप महेन्द्र पर्वत पर तपस्या में प्रवृत हो गये। गोकर्ण पर्यन्त धरती को समुद्र में डूबी हुई देख कर तपस्वियों ने आपसे प्रार्थना की। ध्यान से प्राप्त धनुष पर आग्नेय अस्त्र चढा देख कर समुद्र चकित हो गया। फिर स्रुव को फेंक कर आपने केरल भूमि को निकाल कर उठा लिया। हे भृगुपति वातेश! मेरी सुरक्षा करें।

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